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प्रत्यक्षप्रमाणमीमांसा
२८५ बिम्बका वास्तविक विश्लेषणपूर्वक यथावत् परिज्ञान कर सकता है। 'जो एकको जानता है वह सबको जानता है' इसका यही रहस्य है।
समन्तभद्र आदि आचार्योंने सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थोंका प्रत्यक्षत्व' अनुमेयत्व हेतुसे सिद्ध किया है। बौद्धोंकी तरह किसी भी जैनग्रन्थमें धर्मज्ञता और सर्वज्ञताका विभाजन कर उनमें गौण-मुख्यभाव नहीं बताया है। सभी जैन ताकिकोंने एक स्वरसे त्रिकाल त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थोंके पूर्ण परिज्ञानके अर्थमें सर्वज्ञताका समर्थन किया है। धर्मज्ञता तो उक्त पूर्ण सर्वज्ञताके गर्भमें ही निहित मान ली गई है। अकलंकदेवने सर्वज्ञताका समर्थन करते हुए लिखा है कि आत्मामें समस्त पदार्थोके जाननेकी पूर्ण सामर्थ्य है । संसारी अवस्थामे उसके ज्ञानका ज्ञानावरणसे आवृत होनेके कारण पूर्ण प्रकाश नहीं हो पाता, पर जब चैतन्यके प्रतिबन्धक कर्मोंका पूर्ण क्षय हो जाता है, तब उस अप्राप्यकारी ज्ञानको समस्त अर्थोके जाननेमें क्या बाधा है ? यदि अतीन्द्रिय पदार्थोंका ज्ञान न हो सके, तो सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिर्ग्रहोंकी ग्रहण आदि भविष्यत दशाओंका उपदेश कैसे हो सकेगा ? ज्योतिर्ज्ञानोपदेश अविसंवादी और यथार्थ देखा जाता है। अतः यह मानना ही चाहिये कि उसका यथार्थ उपदेश अतीन्द्रियार्थदर्शनके बिना नहीं हो सकता। जैसे सत्यस्वप्नदर्शन इन्द्रियादिकी सहायताके बिना ही भावी राज्यलाभ आदिका यथार्थ स्पष्ट ज्ञान कराता है तथा विशद है, उसी तरह सर्वज्ञका ज्ञान भी भावी पदा
१. 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा। ., . अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति मर्वक्षसंस्थितिः ॥' ६
-आप्तमी० श्लो० ५। २. देखो, न्यायवि० श्लो० ४६५।। ३. 'धीरत्यन्तपरोक्षेऽर्थे न चेत्पुसां कुतः पुनः । ज्योतिशांनाविसंवादः श्रुताच्चत्साधनान्तरम् ॥'
-सिद्धिवि. टो० लि. पृ० ४१३ । न्यायवि० श्लोक ४१४ ।