________________
च
जैनदर्शन
इन्हीं आ० कुन्दकुन्दने प्रवचनसार' में सर्व प्रथम केवलज्ञानको त्रिकाल - वर्ती समस्त अर्थोंका जाननेवाला लिखकर आगे लिखा है कि जो अनन्त - पर्यायवाले एक द्रव्यको नहीं जानता वह सबको कैसे जानता है ? और जो सबको नहीं जानता वह अनन्तपर्यायवाले एक द्रव्यको पूरी तरह कैसे जान सकता है ? इसका तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य घटज्ञानके द्वारा घटको जानता है वह घटके साथ-ही-साथ घटज्ञानके स्वरूपका भी संवेदन कर ही लेता है, क्योंकि प्रत्येक ज्ञान स्वप्रकाशी होता है । इसी तरह जो व्यक्ति घटको जाननेकी शक्ति रखनेवाले घटज्ञानका यथावत् स्वरूप परिच्छेद करता है वह घटको तो अर्थात् ही जान लेता है, क्योंकि उस शक्तिका यथावत् विश्लेपणपूर्वक परिज्ञान विशेषणभूत घटको जाने बिना हो ही नहीं सकता । इसी प्रकार आत्मामें अनन्तज्ञेयोंके जाननेकी शक्ति है | अतः जो संसारके अनन्तज्ञेयोंको जानता है वह अनन्तज्ञेयोंके जानने की शक्ति रखनेवाले पूर्णज्ञानस्वरूप आत्माको जान ही लेता है और जो अनन्त ज्ञेयोंके जाननेको शक्तिवाले पूर्णज्ञानस्वरूप आत्माको यथावत् विश्लेषण करके जानता है वह उन शक्तियोंके उपयोगस्थानभूत अनन्तपदार्थों को भी जान ही लेता है; क्योंकि अनन्तज्ञेय तो उस ज्ञानके विशेषण हैं और विशेष्यका ज्ञान होने पर विशेषणका ज्ञान अवश्य हो ही जाता है । जैसे जो व्यक्ति घटप्रतिबिम्बवाले दर्पणको जानता है वह घटको भी जानता है और जो घटको जानता है वही दर्पण में आये हुए घटके प्रति
२८४
१. 'जं तक्कालियमिदरं जाणादि जुगवं समंतदो सव्वं । अत्थं विचित्तविसमं तं णाणं खाइयं भणियं ॥
बं ।
जो ण विजाणादि जुगत्रं णादु तस्स ण सक्कं दव्वमणं तपज्जयमेकमणंताणि दव्वजादाणि ।
अत्थे तेकालिके तिहुवणत्थे । सवज्जयं दव्वमेकं वा ॥
ण विजार्णादि जद जुग कथ मो मन्त्राणि जाणादि ।'
- प्रवचनसार १/४७-४९ ।