________________
प्रत्यक्षप्रमाणमीमांसा
२७९ मनःपर्ययज्ञान :
'मनःपर्ययज्ञान दूसरेके मनकी बातको जानता है । इसके दो भेद है-एक ऋजुमति और दूसरा विपुलमति । ऋजमति सरल मन, वचन, और कायसे विचारं गये पदार्थको जानता है, जब कि विपुलमति सरल और कुटिल दोनों तरहसे विचारे गये पदार्थोको जानता है। मनःपर्ययज्ञान भी इन्द्रिय और मनकी सहायताके बिना ही होता है। दूमरेका मन तो इसमें केवल आलम्बन पड़ता है । 'मनःपर्ययज्ञानी दूसरेके मनमें आनेवाले विचारोंको अर्थात् विचार करनेवाले मनको पर्यायोंको साक्षात् जानता है
और उसके अनुसार बाह्य पदार्थोको अनुमानसे जानता है' यह एक आचार्यका मत है। दूसरे आचार्य मनःपर्ययज्ञानके द्वारा बाह्य पदार्थका साक्षात् ज्ञान भी मानते है । मनःपर्ययज्ञान प्रकृष्ट चारित्रवाले साधुके ही होता है। इसका विषय अवधिज्ञानसे अनन्तवा भाग सूक्ष्म होता है । इसका क्षेत्र मनुष्यलोक बराबर है। केवलज्ञान :
समस्त ज्ञानावरणके समूल नाश होनेपर प्रकट होनेवाला निरावरण ज्ञान केवलज्ञान है । यह आत्ममात्रसापेक्ष होता है और केवल अर्थात् अकेला होता है। इस ज्ञानके उत्पन्न होते ही समस्त क्षायोपशमिक ज्ञान विलीन हो जाते है। यह समस्त द्रव्योंकी त्रिकालवर्ती सभी पर्यायोंको जानता है तथा अतीद्रिय होता है। यह सम्पूर्ण रूपसे निर्मल होता है । इसके सिद्ध करनेकी मल युक्ति यह है कि आत्मा जब ज्ञानस्वभाव है
१. देखो, तत्वार्थवार्तिक ११२६ । २. "जाणइ बज्झेऽणुमाणेण-विशेषा० गा० ८१४ । ३. “शस्यावरणविच्छदे शेयं किमवशिष्यते ?" -न्यायवि० श्लो०४६५ ।
"शो शेये कथमशः स्यादसति प्रतिबन्धके। दाद्येऽग्निर्दाहको न स्यादसति प्रतिबन्धके ॥"
-उद्धृत अष्टसह० पृ०५०।