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जैनदर्शन
और आवरणके कारण इसका यह ज्ञानस्वभाव खंड-खंड करके प्रकट होता है तब सम्पूर्ण आवरणके हट जानेपर ज्ञानको अपने पूर्णरूपमें प्रकाशमान होना ही चाहिए । जैसे अग्निका स्वभाव जलानेका है । यदि कोई प्रतिबन्ध न हो तो अग्नि ईन्धनको जलायगी हो। उसी तरह ज्ञानस्वभाव आत्मा प्रतिबन्धकोंके हट जाने पर जगतके समस्त पदर्थोको जानेगा ही। 'जो पदार्थ किसी ज्ञानके ज्ञेय है, वे किसी-न-किसीके प्रत्यक्ष अवश्य होते हैं । जैसे पर्वतीय अग्नि' इत्यादि अनेक अनुमान उस निरावरण ज्ञानको सिद्धिके लिए दिये जाते है। सर्वज्ञताका इतिहास:
प्राचीन कालमें भारतवर्पको परम्पराके अनुसार सर्वज्ञताका सम्बन्ध भी मोक्षके ही साथ था। मुमुक्षुओंमें विचारणीय विषय तो यह था कि मोक्षके मार्गका किसने साक्षात्कार किया ? यही मोक्षमार्ग धर्म शब्दसे निर्दिष्ट होता है । अतः विवादका विषय यह रहा कि धर्मका साक्षात्कार हो सकता है या नहीं ? एक पक्षका, जिसके अनुगामी शबर, कुमारिल आदि मीमांसक है, कहना था कि धर्म जैसी अतीन्द्रिय वस्तुओंको हम लोग प्रत्यक्षसे नहीं जान सकते । धर्मके सम्बन्धमें वेदका ही अन्तिम और निर्बाध अधिकार है। धर्मकी परिभाषा "चोदनालक्षणोऽर्थः धर्मः" करके धर्ममें वेदको ही प्रमाण कहा है । इस धर्मज्ञानमें वेदको ही अन्तिम प्रमाण माननेके कारण उन्हें पुरुषमें अतीन्द्रियार्थविषयक ज्ञानका अभाव मानना पड़ा। उन्होंने पुरुषमें राग, द्वेष और अज्ञान आदि दोपोंको शंका होनेसे अतीन्द्रियधर्मप्रतिपादक वेदको पुरुपकृत न मानकर अपौरूषेय माना। इस अपौरूषेयत्वकी मान्यतासे ही पुरुषमें सर्वज्ञताका अर्थात् प्रत्यक्षसे होने वाली धर्मज्ञताका निषेध हुआ। आ० कुमारिल स्पष्ट लिखते हैं कि १. 'धर्मशत्वनिषेधश्च केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद्विजानंस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥
-तत्त्वसं० का० ३१२८ ( कुमारिलके नामसे उदधृत )