SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७८ जैनदर्शन विशेषोंका युगपत् स्मरण आ जानेसे ज्ञान दोनों कोटियोंमें दोलित हो जाता है। २. पारमार्थिक प्रत्यक्ष : पारमार्थिक प्रत्यक्ष सम्पूर्ण रूपसे विशद होता है। वह मात्र आत्मासे उत्पन्न होता है। इन्द्रिय और मनके व्यापारकी उसमें आवश्यकता नहीं होती । वह दो प्रकारका है-एक सकलप्रत्यक्ष और दूसरा विकलप्रत्यक्ष । केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष है और अवधिज्ञान तथा मनःपर्ययज्ञान विकलप्रत्यक्ष है। अवधिज्ञान: 'अवधिज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान अवधिज्ञान है। यह रूपिद्रव्यको ही विषय करता है, आत्मादि अरूपी द्रव्यको नहीं। चूंकि इसको अपनो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादा निश्चित है और यह नोचेको तरफ अधिक विषयको जानता है, अतएव अवधिज्ञान कहा जाता है। इसके देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ये तीन भेद होते हैं। मनुष्य और तिर्यंचोंके गुणप्रत्यय देशावधि होता है और देव तथा नारकियोंके भवप्रत्यय । भवप्रत्यय अवधिमें कर्मका क्षयोपशम उस पर्यायके ही निमित्तसे हो जाता है, जबकि मनुष्य और तिर्यञ्चोंके होनेवाले देशावधिका क्षयोपशम गुणनिमित्तक होता है। परमावधि और सर्वावधि चरमशरोरी मुनिके ही होते हैं। देशावधि प्रतिपाती होता है, परन्तु सर्वावधि और परमावधि प्रतीपाती नहीं होते । संयमसे च्युत होकर अविरत और मिथ्यात्व-भूमिपर आ जाना प्रतीपात कहा जाता है । अथवा, मोक्ष होनेके पहले जो अवधिज्ञान छूट जाता है, वह प्रतिपाती होता है। अवधिज्ञान सूक्ष्मरूपसे एक परमाणुको जान सकता है। १. देखो, तत्त्वार्थवात्तिक २२१-२२ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy