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जैनदर्शन
ही होता है । उक्त प्रकारके ज्ञानके होनेमें संशय नहीं है । संशय तो उसके विषयभूत पदार्थ में है । इसी प्रकार विपर्यय और अनध्यवसाय ज्ञानोंका स्वरूपसंवेदन अपने में निश्चयात्मक और यथार्थ ही होता है ।
मानसप्रत्यक्ष में केवल मनसे सुखादिकका संवेदन होता हो। इसमें इन्द्रियव्यापार की आवश्यकता नहीं होती ।
अवग्रहादि बहु आदि अर्थोंके होते हैं :
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ग्रहादिज्ञान एक, बहु, एकविध, बहुविध, क्षिप्र, अक्षित्र, निःसृत, अनिःसृत, उक्त, अनुक्त, ध्रुव और अध्रुव इस तरह बारह प्रकारके अर्थोके होते है । चक्षु आदि इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाले अवग्रहादि मात्र रूपादि गुणोंको ही नहीं जानते, किन्तु उन गुणोंके द्वारा द्रव्यको ग्रहण करते है; क्योंकि गुण और गुणीमें कथञ्चित् अभेद होनेसे गुणका ग्रहण होने पर गुणीका भी ग्रहण उस रूपमें हो हो जाता है । किसी ऐसे इन्द्रियज्ञानकी कल्पना नहीं की जा सकती, जो द्रव्यको छोड़कर मात्र गुणको, या गुणको छोड़कर मात्र द्रव्यको ग्रहण करता हो ।
विपर्यय आदि मिथ्याज्ञान-
विपर्यय ज्ञानका स्वरूप :
इन्द्रियदोष तथा सादृश्य आदिके कारण जो विपर्यय ज्ञान होता है, वह जैन दर्शन में विपरीतख्यातिके रूपसे स्वीकार किया गया है। किसी पदार्थ में उससे विपरीत पदार्थका प्रतिभास होना विपरीत ख्याति कहलाती है । 'यह पदार्थ विपरीत है' इस प्रकारका प्रतिभास विपर्ययकालमें नहीं होता है । यदि प्रमाताको यह मालूम हो जाय कि 'यह पदार्थ विपरीत है' तब तो वह ज्ञान यथार्थ ही हो जायगा । अतः पुरुषसे विपरीत स्थाणुमें
१. देखो तत्त्वार्थसूत्र १।१६ ।
तत्त्वार्थसूत्र १।१७।
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