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________________ २७३ प्रत्यक्षप्रमाणमीमांसा भाषा और वेशको देखकर निर्णयकी ओर झुकनेवाला 'यह दक्षिणी होना चाहिए' ऐसा भवितव्यतारूप 'ईहा' ज्ञान होता है। ईहाके बाद विशेष चिह्नोंसे 'यह दक्षिणी ही है' ऐसा निर्णयात्मक 'अवाय' ज्ञान होता है । कहीं इसका अपायके रूपमें भी उल्लेख मिलता है, जिसका अर्थ है 'अनिष्ट अंशको निवृत्ति करना' । अपाय अर्थात् 'निवृत्ति' । अवायमें इष्ट अंशका निश्चय विवक्षित है जब कि अपायमें अनिष्ट अंशकी निवृत्ति मुख्यरूपसे लक्षित होती है। _ यही अवाय उत्तरकालमें दृढ़ होकर 'धारणा' बन जाता है। इसी धारणाके कारण कालान्तरमें उस वस्तुका स्मरण होता है। धारणाको संस्कार भी कहते है। जब तक इन्द्रियव्यापार चालू है तब तक धारणा इन्द्रियप्रत्यक्षके रूपमें रहती है । इन्द्रियव्यापारके निवृत्त होजानेपर यही धारणा शक्तिरूपमें संस्कार बन जाती है । ____ इनमें संशय ज्ञानको छोड़कर बाकी व्यञ्जनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा यदि अर्थका यथार्थ निश्चय कराते है तो प्रमाण हैं, अन्यथा अप्रमाण । प्रमाणताका अर्थ है जो वस्तु जैसी प्रतिभासित होती है उसका उसी रूपमें मिलना। सभी ज्ञान स्वसंवेदी हैं : ये सभी ज्ञान स्वसंवेदी होते हैं। ये अपने स्वरूपका बोध स्वयं करते है। अतः स्वसंवेदनप्रत्यक्षको स्वतन्त्र माननेकी आवश्यकता नहीं रह जाती। जो जिस ज्ञानका स्वसंवेदन है, वह उसीमें अन्तर्भूत हो जाता है; इन्द्रियप्रत्यक्षका स्वसंवेदन इन्द्रियप्रत्यक्षमें और मानसप्रत्यक्षका स्वसंवेदन मानसप्रत्यक्षमें । किन्तु स्वसंवेदनको दृष्टिसे अप्रमाणव्यवहार या प्रमाणाभासको कल्पना कथमपि नहीं होती। ज्ञान प्रमाण हो या अप्रमाण, उसका स्वसंवेदन तो ज्ञानके रूपमें यथार्थ ही होता है। यह स्थाणु है या पुरुष ?' इस प्रकारके संशय ज्ञानका स्वसंवेदन भी अपनेमें निश्चयात्मक
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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