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जैनदर्शन
कारी ही नहीं मानना चाहिए । जब शब्द वातावरण में उत्पन्न होता हुआ क्रमशः कानके भीतर पहुँचता है, तभी सुनाई देता है । श्रोत्रका शब्दो - त्पत्तिके स्थान में पहुँचना तो नितान्त बाधित है ।
ज्ञानका उत्पत्ति-क्रम, अवग्रहादि भेद :
सांव्यवहारिक इन्द्रियप्रत्यक्ष चार भागों में विभाजित है - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । सर्व प्रथम विषय और विषयोके सन्निपात (योग्यदेशावस्थिति ) होनेपर दर्शन होता है । यह दर्शन सामान्य-सत्ताका आलोचक होता है । इसके आकारको हम मात्र 'है' के रूपमें निर्दिष्ट कर सकते हैं । यह अस्तित्वरूप महासत्ता या सामान्य - सत्ताका प्रतिभास करता है । इसके बाद उस विषयकी अवान्तर सत्ता ( मनुष्यत्व आदि ) से युक्त वस्तुका ग्रहण करनेवाला 'यह पुरुष है' ऐसा अवग्रह ज्ञान होता है । अवग्रह ज्ञानमें पुरुषत्वविशिष्ट पुरुषका स्पष्ट बोध होता है । जो इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं, उनके द्वारा दर्शनके बाद सर्वप्रथम व्यंजनावग्रह होता है । जिस प्रकार कोरे घड़ेमें जब दो, तीन, चार जलबिन्दुए तुरन्त सूख जाती हैं, तब कहीं घड़ा धीरे-धीरे गोला होता है, उसी तरह व्यंजनावग्रहमें पदार्थका अव्यक्त बोध होता है । इसका कारण यह है कि प्राप्यकारी स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रियाँ अनेक प्रकारकी उपकरण- त्वचाओंसे आवृत रहती हैं, अतः उन्हें भेदकर इन्द्रिय तक विषय सम्बन्ध होनेमें एक क्षण तो लग ही जाता है । अप्राप्यकारी चक्षुकी उपकरणभूत पलकें आँखके तारेके ऊपर हैं और पलकें खुलने के बाद ही देखना प्रारम्भ होता है । आँख खुलनेके बाद पदार्थके देखनेमें अस्पष्टताकी गुंजाइश नहीं रहती । जितनी शक्ति होगी, उतना स्पष्ट ही दिखेगा । अतः चक्षुइन्द्रियसे व्यञ्जनावग्रह नहीं होता । व्यञ्जनावग्रह शेष चार इन्द्रियोंसे ही होता है ।
अवग्रहके बाद उसके द्वारा ज्ञान विषयमें 'यह पुरुष दक्षिणी है या उत्तरी ?" इस प्रकारका विशेषविषयक संशय होता है । संशयके अनन्तर