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प्रत्यक्षप्रमाणमीमांसा पदार्थोंको किरणें प्रतिबिम्बित होती हैं । किरणोंके प्रतिबिम्ब पड़नेसे ज्ञानतन्तु उद्बुद्ध होते हैं और फिर चक्षु उन पदार्थोको देखती है । चक्षुमें आये हुए प्रतिबिम्बका कार्य केवल चेतनाको उद्बुद्ध कर देना है । वह स्वयं दिखाई नहीं देता। इस प्रणालीमें यह बात तो स्पष्ट है कि चक्षुने योग्य देशमें स्थित पदार्थको ही जाना है, अपनेमे पड़े हुए प्रतिबिम्बको नहीं। पदार्थोके प्रतिविम्ब पड़नेको क्रिया तो केवल स्विचको दबानेकी क्रियाके समान है, जो विद्युत शक्तिको प्रवाहित कर देता है । अतः इस प्रक्रियासे जैनोंके चक्षुको अप्राप्यकारी माननेके विचारमें कोई विशेष बाधा उपस्थित नहीं होती। श्रोत्र अप्राप्यकारी नहीं :
बौद्ध श्रोत्रको भी अप्राप्यकारी मानते है। उनका विचार है किशब्द भी दूरसे ही सुना जाता है । वे चक्षु और मनके साथ श्रोत्रके भी अप्राप्यकारी होनेका स्पष्ट निर्देश करते है। यदि श्रोत्र प्राप्यकारी होता तो शब्दमें दूर और निकट व्यवहार नहीं होना चाहिए था। किन्तु जब श्रोत्र कानमें घुसे हुए मच्छरके शब्दको सुन लेता है, तो अप्राप्यकारो नहीं हो सकता । प्राप्यकारी घ्राण इन्द्रियके विपयभूत गन्धमें भी 'कमलकी गन्ध दूर है, मालतीको गन्ध पास है' इत्यादि व्यवहार देखा जाता है । यदि चक्षुकी तरह श्रोत्र भी अप्राप्यकारी है तो जैसे रूपमें दिशा और देशका संशय नहीं होता उसी तरह शब्दमें भी नहीं होना चाहिए था, किन्तु शब्दमें 'यह किस दिशासे शब्द आया है ?' इस प्रकारका संशय देखा जाता है । अतः श्रोत्रको भी स्पर्शनादि इन्द्रियोंकी तरह प्राप्य
'अप्राप्तान्यक्षिमनःश्रोत्राणि ।'
-अभिधर्मकोश ११४३ । तत्वम ग्रह० पं० पृ० ६०३ । देखो तत्वार्थवार्तिक पृ० ६८-६९ ।