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प्रत्यक्षप्रमाणमीमांसा
२७५ 'पुरुष' इस प्रकारकी ख्याति अर्थात् प्रतिभास विपरीतख्याति कहलाता है। यद्यपि विपर्ययकालमें पुरुष वहां नहीं है, परन्तु सादृश्य आदिके कारण पूर्वदृष्ट पुरुषका स्मरण होकर उसमें पुरुषका भान होता है और यह सब होता है इन्द्रियदोप आदिके कारण। इसमें अलौकिक, अनिर्वचनीय, असत्, सत् या आत्माका प्रतिभास मानना या इस ज्ञानको निरालम्बन ही मानना प्रतीतिविरुद्ध है।
विपर्ययज्ञानका आलम्बन तो वह पदार्थ है ही जिसमें सादृश्य आदिके कारण विपरीत भान हो रहा है और जो विपरीत पदार्थ उसमें प्रतिभासित हो रहा है। वह यद्यपि वहाँ विद्यमान नहीं है, किन्तु सादृश्य आदिके कारण स्मरणका विषय बनकर झलक तो जाता ही है । अन्ततः विपर्ययज्ञानका विषयभूत पदार्थ विपर्ययकालमें आलम्बनभूत पदार्थमें आरोपित किया जाता है और इसीलिए वह विपर्यय है । असल्याति और आत्मख्याति नहीं :
विपर्ययकालमें सीपमें चाँदी आ जाती है, यह निरी कल्पना है; क्योंकि यदि उस कालमें चाँदी आती हो, तो वहाँ बैठे हुए पुरुपको दिख जानी चाहिये । रेतमें जलज्ञानके समय यदि जल वहाँ आ जाता है, तो पीछे जमीन तो गीली मिलनी चाहिये । मानसभ्रान्ति अपने मिथ्या संस्कार और विचारोंके अनुसार अनेक प्रकारकी हुआ करती है। आत्माकी तरह बाह्य पदार्थका अस्तित्व भी स्वतःसिद्ध और परमार्थसत् ही है। अतः बाह्यार्थका निषेध करके नित्य ब्रह्म या क्षणिक ज्ञानका प्रतिभास कहना भी सयुक्तिक नहीं है। विपर्यय ज्ञानके कारण :
विपर्यय ज्ञानके अनेक कारण होते है; वात-पित्तादिका क्षोभ, विषयको चंचलता, किसी क्रियाका अतिशीघ्र होना, सादृश्य और इन्द्रियविकार आदि। इन दोषोंके कारण मन और इन्द्रियोंमे विकार उत्पन्न होता है