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________________ प्रमाणमीमांसा २६१ प्रामाण्यको परतः माननेका पक्ष बौद्धके नामसे उल्लिखित है, पर उनके मूल ग्रंथोंमें इन पक्षोंका उल्लेख नहीं मिलता। ___ नैयायिक दोनोंको परतः मानते हैं-संवादसे प्रामाण्य और बाधकप्रत्ययसे अप्रामाण्य आता है। जैन जिस वक्ताके गुणोंका प्रत्यय है उसके वचनोंको तत्काल स्वतःप्रमाण कह भी दें, पर शब्दको प्रमाणता गुणोंसे ही आती है, यह सिद्धान्त निरपवाद है। अन्य प्रमाणोंमें अभ्यास और अनभ्याससे प्रामाण्य और अप्रामाण्यके स्वतः और परतःका निश्चय होता है। मीमांसक यद्यपि प्रमाणको उत्पत्ति कारणोंसे मानता है पर उसका अभिप्राय यह है कि जिन कारणोंसे ज्ञान उत्पन्न होता है उससे अतिरिक्त किसी अन्य कारणकी, प्रमाणताकी उत्पत्तिमें अपेक्षा नहीं होती। जैनका कहना है कि इन्द्रियादि कारण या तो गुणवाले होते हैं या दोपवाले; क्योंकि कोई भी सामान्य अपने विशेषोंमें ही प्राप्त हो सकता है। कारणसामान्य भी या तो गुणवान् कारणोंमें मिलेगा या दोषवान् कारणोंमें । अतः यदि दोषवान कारणोंसे उत्पन्न होनेके कारण अप्रामाण्य परतः माना जाता है तो गुणवान् कारणोंसे उत्पन्न होनेसे प्रामाण्यको भी परतः ही मानना चाहिये । यानी उत्पत्ति चाहे प्रामाण्यकी हो या अप्रामाण्यको । हर हालतमें वह परतः ही होगी। जिन कारणोंसे प्रमाण या अप्रमाण पैदा होगा, उन्हीं कारणोंसे उनकी प्रमाणता और अप्रमाणता भी उत्पन्न हो ही जाती है । प्रमाण और प्रमाणताकी उत्पत्तिमें समयभेद नहीं है। ज्ञप्ति और प्रवृत्तिके सम्बन्धमें कहा जा चुका है कि वे अभ्यास दशामें स्वतः और अनभ्यास दशामें परतः होती हैं । वेदको स्वतः प्रामाण्य माननेके सिद्धान्तने मीमांसकको शब्दमात्रके नित्य माननेकी ओर प्रेरित किया; क्योंकि यदि शब्दको अनित्य माना जाता १. 'सांगताश्चरमं स्वतः ।'-सर्व० पृ० २७९ । २. 'द्वयमपि परतः इत्येष एव पक्षः श्रेयान् ।' -न्यायम० पृ० १७४ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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