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________________ २६२ जैनदर्शन है तो शब्दात्मक वेदको भी कभी न कभी किमी वक्ताके मुखसे उत्पन्न हुआ मानना पडेगा, जो कि उसकी स्वतः प्रमाणताका विधातक सिद्ध हो सकता है। वक्ताके मखसे एकान्ततः जन्म लेनेवाले मार्थक भापात्मक शब्दोको भी नित्य और अपौरुषेय कहना युक्ति और अनुभव दोनोमे विरुद्ध है । परम्परा और सन्ततिकी दृष्टिमे भले ही भाषात्मक शब्द अनादि हो जाँय, पर तत्तत्ममयोमे उत्पन्न होनेवाले शब्द तो उत्पत्तिके बाद ही नष्ट हो जाते है । शब्द तो जलकी लहरके समान पौद्गलिक वातावरणमे उत्पन्न होते है और नष्ट होते है, अत उन्हें नित्य नहीं माना जा सकता। फिर उम वेदका, जिसमे अनेक गजा, ऋपि, नगर, नदी और देश आदि अनित्य और गादि पदार्थोके नाम आते है, नित्य, अनादि और अपौरुपेय कहकर स्वतः प्रमाण कैसे माना जा सकता है ? प्रमाणता या अप्रमाणता मर्वप्रथम तो परतः ही गृहीत होती है, आगे परिचय और अभ्यासके कारण भले ही वे अवस्थाविशेपमे स्वतः हो जायें। गण और दोष दोनो वस्तुके ही धर्म है । वस्तु या तो गुणात्मक होती है या दोगात्मक । अतः गुणको 'स्वरूप' कहकर उसका अस्तित्व नही उटाया जा सकता। दोनोकी स्थिति बराबर होती है । यदि काचकामलादि दोण है तो निर्मलता चक्षका गुण है। अतः गण और दोप रूप कारणोसे उत्पन्न होनेके कारण प्रमाणता और अप्रमाणता दोनो हो परतः मानी जानी चाहिए। प्रमाणसंप्लव-विचार: एक ही प्रमेयमे अनेक प्रमाणोकी प्रवृत्तिको 'प्रमाणसम्प्लव' कहते है । बौद्ध पदार्थोको क्षणिक मानते है। उनका यह भी सिद्धान्त है कि ज्ञान अर्थजन्य होता है। जिस विवक्षित पदार्थसे कोई एक प्रत्यक्षज्ञान उत्पन्न हुआ है, वह पदार्थ दूसरे क्षणमे नियमसे नष्ट हो जाता है, इसलिए किसी भी अर्थमे दो ज्ञानोकी प्रवृत्तिका अवसर ही नहीं है। बौद्धोंने
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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