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जैनदर्शन अभाव होनेसे स्वतः आ जाती है। ज्ञानको उत्पन्न करनेवाले जो भी कारण हैं उनसे प्रमाणता तो उत्पन्न होती है पर अप्रमाणतामें उन कारणोंने अतिरिक्त 'दोष' भी अपेक्षित होते हैं । यानी निर्मलता चक्षु आदिका स्वरूप है, स्वरूपसे अतिरिक्त कोई गुण नहीं है। जहाँ अतिरिक्त दोष मिल जाता है, वहाँ अप्रमाणता दोपकृत होनेसे परतः होती है और जहां दोषकी सम्भावना नहीं है वहाँ प्रमाणता स्वतः ही आती है। शब्दमें भी इसी तरह स्वतः प्रामाण्य स्वीकार करके जहाँ वक्ताके दोष आ जाते हैं वहाँ अप्रमाणता दोषप्रयुक्त होनेसे परतः मानी जाती है । ___ मीमांसक ईश्वरवादी नहीं हैं, अत: वेदको प्रमाणता ईश्वरमूलक तो वे मान ही नहीं सकते थे। अतः उनके सामने एक ही मार्ग रह जाता है वेदको स्वतःप्रमाण माननेका । __ नैयायिकादि वेदकी प्रमाणता उसके ईश्वरकर्तृक होनेसे परतः ही मानते हैं।
आचार्य शान्तरक्षित ने बौद्धोंका पक्ष 'अनियमवाद' के रूपमें रखा है। वे कहते हैं-'प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों स्वतः, दोनों परतः, प्रामाण्य स्वतः अप्रामाण्य परतः और अप्रामाण्य स्वतः प्रामाण्य परतः' इन चार नियम पक्षोंसे अतिरिक्त पाँचवाँ 'अनियम पक्ष' भी है जो प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनोंको अवस्थाविशेषमें स्वतः और अवस्थाविशेषमें परतः माननेका है । यही पक्ष बौद्धोंको इष्ट है। दोनोंको स्वतः माननेका पक्ष 'सर्वदर्शनसंग्रह में सांख्यके नामसे तथा अप्रामाण्यको स्वतः और
१. 'प्रमायाः परतन्त्रत्वात्।' -न्यायकुसुमाञ्जलि २।१ । २. 'नहि बौद्धरेषां चतुर्णामेकतमोऽपि पक्षोऽभीष्टः, अनियमपक्षस्येष्टत्वात् । तथाहि
उभयमप्येतत् किश्चित् स्वतः किञ्चित् परत इति पूर्वमुपवर्णितम् । अत एव पक्षचतुष्टयोपन्यासोऽप्ययुक्तः । पञ्चमस्य अनियमपक्षस्य संभवात् ।' -तत्त्वसं०प०
का० ३१२३ । ३. 'प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वतः सांख्याः समाश्रिताः ।' -सर्वद० पृ० २७९ ।