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प्रमाणमीमांसा
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है उन जलाशयादिमें होनेवाला जलज्ञान या मरीचिज्ञान अपने आप अपनी प्रमाणता और अप्रमाणता बता देता है, किन्तु अपरिचित स्थानोंमें होनेवाले जलज्ञानकी प्रमाणताका ज्ञान पनहारियोंका पानी भरकर लाना, मेंढकोंका टर्राना या कमलको गन्धका आना आदि जलके अविनाभावी स्वतः प्रमाणभूत ज्ञानोंसे ही होता है। इसी तरह जिस वक्ताके गुण-दोषों का हमें परिचय है उसके वचनोंकी प्रमाणता और अप्रमाणता तो हम स्वतः जान लेते हैं, पर अन्यके वचनोंको प्रमाणताके लिए हमें दूसरे संवाद आदि कारणोंको अपेक्षा होती है ।
मीमांसक वेदको अपौरुषेय मानकर उसे स्वतः प्रमाण कहते हैं । उसका प्रधान कारण यह है कि वेद, धर्म और उसके नियम उपनियमोंका प्रतिपादन करनेवाला है। धर्मादि अतीन्द्रिय है। किसी पुरुपमें ज्ञानका इतना विकास नहीं हो सकता, जो वह अतीन्द्रियदर्शी हो सके। यदि पुरुषोंमें ज्ञानका प्रकर्ष या उनके अनुभवोंको अतीन्द्रिय साक्षात्कारका अधिकारी माना जाता है तो परिस्थितिविशेषमं धर्मादिके स्वरूपका विविध प्रकारसे विवेचन हा नहीं, निर्माण भी गंभव हो सकता है, और इस तरह वेदके निधि एकाधिकारमे वाधा आ सकती है। वक्ताके गुणोंसे वचनोंमें प्रमाणता आती है और दोपासे अप्रमाणता, इस सर्वमान्य सिद्धान्तको स्कोकार करके भी मीमांसकने वेदको दोषोंसे मुक्त अर्थात् निर्दोप कहनेका एक नया ही तरीका निकाला। उसने कहा कि 'शब्दके दोष वक्ताके अधीन होते है और उनका अभाव यद्यपि साधारणतया वक्ताके गुणोंमे ही होता है किन्तु यदि वक्ता ही न माना जाय तो निराश्रय दोपोंको सम्भावना शब्दमें नहीं रह जाती।' इस तरह जब शब्दमें वक्ताका अभाव मानकर दोषोंकी निवृत्ति कर दी गई और उन्हें स्वतः प्रमाण मान लिया गया, तब इसी पद्धतिको अन्य प्रमाणोंम भो लगाना पड़ा और यहाँ तक कल्पना करना पड़ी कि गुण अपनेमें स्वतन्त्र वस्तु ही नहीं हैं किन्तु वे दोषाभावरूप हैं। अतः अप्रमाणता तो दोषोंसे आती है पर प्रमाणता दोपोंका