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जैनदर्शन
ज्ञानको उत्पन्न करनेमें होता है यानी सामग्री ज्ञानको उत्पन्न करती है। और ज्ञान जानता है । यदि ज्ञानकी तरह शेष सामग्री भी स्वभावतः जाननेवाली होती तो उसे भी ज्ञानके साथ 'साधकतम' पदपर बैठाया जा सकता था और प्रमाणसंज्ञा दी जा सकती थी । वह सामग्री युद्धवीरकी जननी हो सकती है, स्वयं योद्धा नहीं । सीधी-सी बात है कि प्रमिति चूँकि चेतनात्मक है और चेतनका धर्म है, अत: उस चेतन क्रियाका साधकतम चेतनधर्म ही हो सकता है । वह अज्ञानको हटानेवाली है, अतः उसका साधकतम अज्ञानका विरोधी ज्ञान ही हो सकता है, अज्ञान नहीं । इन्द्रियव्यापार भी प्रमाण नहीं :
इसी तरह' सांख्यसम्मत इन्द्रियोंका व्यापार भी प्रमाण नहीं माना जा सकता; क्योंकि व्यापार भी इन्द्रियोंकी तरह अचेतन और अज्ञानरूप ही होगा, ज्ञानात्मक नहीं । और अज्ञानरूप व्यापार प्रमामें साधकतम न होनेसे प्रमाण नहीं हो सकता, अतः सम्यग्ज्ञान ही एकान्तरूपसे प्रमाण हो सकता है, अन्य नहीं । प्रामाण्य- विचार:
प्रमाण जिस पदार्थको जिस रूपमें जानता है उसका उसी रूपमें प्राप्त होना यानी प्रतिभात विषयका अव्यभिचारी होना प्रामाण्य कहलाता है । यह प्रमाणका धर्म है । इसकी उत्पत्ति उन्हीं कारणोंसे होती है जिन कारणोंसे प्रमाण उत्पन्न होता है । अप्रामाण्य भी इसी तरह अप्रमाणके कारणोंसे ही पैदा होता है । प्रामाण्य हो या अप्रामाण्य, उसकी उत्पत्ति परसे ही होती है । ज्ञप्ति अभ्यासदशामें स्वतः और अनभ्यासदशामें किसी स्वतः प्रमाणभूत ज्ञानान्तरसे यानी परतः हुआ करती है । जैसे जिन स्थानोंका हमें परिचय
१. देखो, योगद० व्यासभा० पृ० २७ ।
२. 'तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च । - परीक्षामुख १।१३ ।