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प्रमाणमीमांसा तदाकारता प्रमाण नहीं :
बौद्ध परंपरामें ज्ञानको स्वसंवेदी स्वीकार तो किया है परन्तु प्रमाके करणके रूपमे सारूप्य, तदाकारता या योग्यताका निर्देश' मिलता है। ज्ञानगत योग्यता या ज्ञानगत सारूप्य अन्ततः ज्ञानस्वरूप ही है, अतः परिणमनमें कोई विशेष अन्तर न होने पर भी ज्ञानका पदार्थाकार होना एक पहेली ही है । 'अमूर्तिक ज्ञान मूर्तिक पदाथोंके आकार कैसे होता है ?' इस प्रश्नका पुष्ट समाधान तो नहीं मिलता। ज्ञानके ज्ञेयाकार होनेका अर्थ इतना ही हो सकता है कि वह उस ज्ञेयको जाननेके लिए अपना व्यापार कर रहा है। फिर, किसी भी ज्ञानको वह अवस्था, जिसमें ज्ञेयका प्रतिभास हो रहा है, प्रमाण ही होगी, यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता। सीपमे चाँदीका प्रतिभाम करनेवाला ज्ञान यद्यपि उपयोगकी दृष्टिसे पदार्थाकार हो रहा है, पर प्रतिभासके अनुसार बाह्यार्थकी प्राप्ति न होनेके कारण उसे प्रमाण-कोटिमें नहीं डाला जा सकता। संशयादिज्ञान भी तो आखिर पदार्थाकार होते ही है । ___इस तरह जैनाचार्योके द्वारा किये गये प्रमाणके विभिन्न लक्षणोंसे यह फलित होता है कि ज्ञानको स्वसंवेदी होना चाहिए। वह गृहीतग्राही हो या अपूर्वार्थग्राही, पर अविसंवादी होनेके कारण प्रमाण है । उत्तरकालीन जैन आचार्योने प्रमाणका असाधारण लक्षण करते समय केवल 'सम्यग्ज्ञान'
और 'सम्यगर्थनिर्णय' यही पद पसन्द किये है। प्रमाणके अन्य लक्षणोंमें पाये जानेवाले निश्चित, बाधवजित, अदुष्टकारणजन्यत्व, लोकसम्मतत्व, अव्यभिचारो और व्यवसायात्मक आदि विशेपण 'सम्यक्' इस एक ही
"म्वसंवित्तिः फलं चात्र ताद्रपादर्थनिश्चयः । विषयाकार एवाम्य प्रमाणं तेन मोयते ।" -प्रमाणसमु० पृ० २४ । "प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा।"-तत्वमं० श्री० १३४४ । "सम्यगनिर्णयः प्रमाणम् ।”-प्रमाणमी० १.१२ । “सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् ।"-न्यायढी० पृ० ३ ।