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जैनदर्शन
सर्वावगाही विशेषणपदसे गृहीत हो जाते हैं। अनिश्चित, बाधित, दुष्टकरणजन्य, लोकबाधित, व्यभिचारी, अनिर्णयात्मक, सन्दिग्ध, विपर्यय और अव्युत्पन्न आदि ज्ञान 'सम्यक्' को सीमाको नहीं छू सकते। सम्यग्ज्ञान तो स्वरूप और उत्पत्ति आदि सभी दृष्टियोंसे सम्यक् ही होगा। उसे अविसंवादी या व्यवसायात्मक आदि किसी शब्दसे व्यवहारमे ला सकते है।
प्रमाणशब्द चूँकि करणसाधन है, अतः कर्ता-प्रमाता, कर्म-प्रमेय और क्रिया-प्रमिति ये प्रमाण नहीं होते। प्रमेयका प्रमाण न होना तो स्पष्ट है। प्रमिति, प्रमाण और प्रमाता द्रव्यदृष्टिसे यद्यपि अभिन्न मालूम होते है, परन्तु पर्यायकी दृष्टिसे इन तीनोंका परस्परमें भेद स्पष्ट है। यद्यपि वही आत्मा प्रमिति-क्रियामे व्यापृत होनेके कारण प्रमाता कहलाता है
और वह क्रिया प्रमिति; फिर भी प्रमाण आत्माका वह स्वरूप है जो प्रमितिक्रियामे साधकतम करण होता है। अतः प्रमाणविचारमे वही करणभूत 'पर्याय ग्रहण की जाती है । और इस तरह प्रमाणशब्दका करणार्थक ज्ञान पदके साथ सामानाधिकरण्य भी सिद्ध हो जाता है । सामग्री प्रमाण नहीं:
'वद्ध नैयायिकोंने ज्ञानात्मक और अज्ञानात्मक दोनों प्रकारकी सामग्रीको प्रमाके करणरूपमें स्वीकार किया है। उनका कहना है कि अर्थोपलब्धिरूप कार्य सामग्रीसे उत्पन्न होता है और इस सामग्रीमें इन्द्रिय, मन, पदार्थ, प्रकाश आदि अज्ञानात्मक वस्तुएँ भी ज्ञानके साथ काम करती है। अन्वय और व्यतिरेक भी इसी सामग्रीके साथ ही मिलता है । सामग्रीका एक छोटा भी पुरजा यदि न हो तो सारी मशीन बेकार हो जाती है। किसी भी छोटे-से कारणके हटनेपर कार्य रुक जाता है और सबके मिलने पर ही उत्पन्न होता है तब किसे साधकतम कहा जाय ?
१. "अव्यभिचारिणीमसन्दिग्धामोंपलब्धि विदधती बोधाबोधस्वभावा सामग्री
प्रमाणम् । -न्यायमं० पृ० १२ ।