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________________ २५४ जैनदर्शन पर्वतपर चन्द्रमाका दिखना चन्द्रांशमें ही प्रमाण है, पर्वतस्थितरूपमें नहीं। इस तरह हमारे ज्ञानोंमें ऐकान्तिक प्रमाणता या अप्रमाणताका निर्णय नहीं किया जा सकता। 'तव व्यवहारमें किसी ज्ञानको प्रमाण या अप्रमाण कहनेका क्या आधार माना जाय ?' इस प्रश्नका उत्तर यह है कि ज्ञानोंको प्रायः साधारण स्थिति होने पर भी जिस ज्ञानमें अविसंवादकी बहुलता हो उसे प्रमाण माना जाय तथा विसंवादको बहुलतामें अप्रमाण । जैसे कि इत्र आदिके पुद्गलोंमें रूप, रम, गन्ध और स्पर्श रहने पर भी गन्ध गुणकी उत्कटताके कारण उन्हें 'गन्ध द्रव्य' कहते है, उसी तरह अविसंवादको बहुलतासे प्रमाणव्यवहार हो जायगा। अकलंकदेवके इस विचारका एक ही कारण मालूम होता है कि उनके मतसे इन्द्रियजन्य क्षायोपशमिक ज्ञानोंकी स्थिति पूर्ण विश्वसनीय नहीं मानी जा सकती। स्वल्पशक्तिक इन्द्रियोंकी विचित्र रचनाके कारण इन्द्रियोंके द्वारा प्रतिभासित पदार्थ अन्यथा भो होता है । यही कारण है कि आगमिक परम्परामें इन्द्रिय और मनोजन्य मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको प्रत्यक्ष न कहकर परोक्ष ही कहा गया है । अकलंकदेवके इस विचारको उत्तरकालीन दार्शनिकोंने अपनाया हो, यह नहीं मालूम होता, पर स्वयं अकलंक इस विचारको आप्तमीमांसाको टीका अष्टशती', लघीयस्त्रयस्ववृत्ति और सिद्धिविनिश्चयमें दृढ़ विश्वासके साथ उपस्थित करते हैं। १. “येनाकारेण तत्त्वपरिच्छंदः तदपेक्षया प्रामाण्यमिति । तेन प्रत्यक्षतदाभासयोरपि प्रायशः संकीर्णप्रामाण्येतरस्थितिमन्नेतव्या। प्रसिद्धानुपहतेन्द्रियदृष्टेरपि चन्द्रर्कादिषु देशप्रत्यासत्त्यायभूताकारावभासनात् । तथोपहताक्षादेरपि संख्यादिविसंवादेऽपि चन्द्रादिस्वभावतत्त्वोपलम्भात् । तत्प्रकर्षापेक्षया व्यपदेशव्यवस्था गन्धद्रव्यादिवत् ।' -अष्टश०, अष्टसह० पृ० २७७ । २. “तिमिराग्रुपप्लवशानं चन्द्रादावविसंवादकं प्रमाणं तथा तत्संख्यादौ विसंवादकत्वादप्रमाणं प्रमाणेतरव्यवस्थायास्तल्लक्षणत्वात् ।” -लघी० स्व० श्लो० २२ । ३. "तथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता।" -सिद्धिवि० १।२० ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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