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प्रमाणमीमांसा
२४७ आत्मा अमुक पदार्थविषयक ज्ञानोपयोगसे हटकर अन्यपदार्थविषयक ज्ञानमें प्रवृत्त होता है तब बीचको वह चैतन्याकार या निराकार अवस्था दर्शन कहलाती है, जिसमे ज्ञेयका प्रतिभास नहीं होता। दार्शनिक ग्रन्थोंमें दर्शनका काल' विषय और विषयोके सन्निपातके अनन्तर है। यही कारण है कि पदार्थके सामान्यावलोकनके रूपमें दर्शनको प्रसिद्धि हुई। बौद्धका निर्विकल्पक ज्ञान और नैयायिकादिसम्मत निर्विकल्पप्रत्यक्ष यही है । प्रमाणादिव्यवस्थाका आधार :
ज्ञान, प्रमाण और प्रमाणाभास इनकी व्यवस्था बाह्य अर्थके प्रतिभास करने, और प्रतिभासके अनुसार बाह्य पदार्थके प्राप्त होने और न होने पर निर्भर करती है। जिम ज्ञानका प्रतिभासित पदार्थ ठीक उसी रूपमें मिल जाय, जिम रूपमे कि उसका बोध हुआ है, तो वह ज्ञान प्रमाण कहा जाता है, अन्य प्रमाणाभाम । यहाँ मख्य प्रश्न यह है कि प्रमाणाभासोंमें जो 'दर्शन' गिनाया गया है वह क्या यही निराकार चैतन्यरूप दर्शन है ? जिस चैतन्यमे पदार्थका स्पर्श ही नहीं हुआ उस चैतन्यको ज्ञानको विशेषकक्षा प्रमाण और प्रमाणाभासमे दाखिल करना किसी तरह उचित नहीं है। ये व्यवहार तो ज्ञानमे होते है। दर्शन तो प्रमाण और प्रमाणाभाससे परेकी वस्तु है । विषय और विषयोके सन्निपातके बाद जो सामान्यावलोकनरूप दर्शन है वह तो बौद्ध और नैयायिकोके निर्विकल्प ज्ञानकी तरह वस्तुस्पर्शी होनेसे प्रमाण और प्रमाणाभासकी विवेचनाके क्षेत्रमे आ जाता है। उस सामान्यवस्तुग्राही दर्शनको प्रमाणाभास इसलिए कहा
परिच्छेदनं करोति तदर्शनमिति। तदनन्तरं पटोऽयमिति निश्चयं यद् बहिविषयरूपेण पदार्थग्रहणविकल्पं करोति तज्शानं भण्यते ।" - वृहद्व्यसं०
टी० गा० ४३ । १. “विषयविषयिसन्निपाते सति दर्शनं भवति ।" सर्वार्थसि० १११५ । २. देखो, परीक्षामुख ६।१।