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८. प्रमाणमीमांसा
ज्ञान और दर्शन :
जड़ पदार्थोंसे आत्माको भिन्न करनेवाला आत्माका गुण या स्वरूप चैतन्य है, यह बात सिद्ध है । यही चैतन्य अवस्थाविशेष में निराकार रहकर 'दर्शन' कहलाता है और साकार होकर 'जान' । आत्मा के अनन्त गुणों में यह चैतन्यात्मक उपयोग ही ऐमा असाधारण गुण है, जिससे आत्मा लक्षित होता है । जब यह उपयोग आत्मेतर पदार्थोको जानने के समय ज्ञेयाकार या साकार होता है; तब उसकी ज्ञान- पर्याय विकसित होती है और जब वह बाह्य पदार्थोंमें उपयुक्त न होकर मात्र चैतन्यरूप रहता है, तब निराकार अवस्थामें दर्शन कहलाता है । यद्यपि दार्शनिक कालमें 'दर्शन' की व्याख्या बदली है और वह चैतन्याकारकी परिधिको लाँघकर पदार्थोंके सामान्यावलोकन तक जा पहुँची । परन्तु सिद्धान्त-ग्रन्थों में दर्शनका वर्णन अन्तरंगार्थविपयक और निराकार रूपसे मिलता है । दर्शनका काल विषय और विषयी ( इन्द्रियाँ ) के सन्निपातके पहले है । जब
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१. “ ततः सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्यग्रहणं ज्ञानं तदात्मकस्वरूपग्रहणं दर्शनमिति सिद्धम् ।‘'भावानां बाह्यार्थानामाकारं प्रतिकर्मव्यवस्थामकृत्वा यद् ग्रहणं तद् दर्शनम्' ( पृ० १४७ ) प्रकाशवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका प्रकाशो ज्ञानम्, तदर्थमात्मनो वृत्तिः प्रकाशवृत्तिः तद्दर्शनम्, विषयविपयिसम्पातात् पूर्वावस्था इत्यर्थः । ( पृ० १४९ ) नै दोषाः दर्शनामाढोकन्ते तस्य अन्तरङ्गार्थविपयत्वात् ।”
- धवला टीका, सत्प्ररू० प्रथम पुस्तक । २. “उत्तरशानोत्पत्तिनिमित्तं यत्प्रयत्नं तद्रूपं यत् स्वस्यात्मनः परिच्छेदनमवलोकनं तद्दर्शनं भण्यते । तदनन्तरं यद्बहिर्विषयविकल्परूपेण पदार्थग्रहणं तज्ज्ञानमिति वात्तिकम् । यथा कोऽपि पुरुषो घटविषयविकल्पं कुर्वन्नास्ते, पश्चात् पटपरिज्ञानार्थं चित्ते जाते सति घटविकल्पाद् व्यावृत्त्य यत् स्वरूपे प्रथममवलोकनं