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जैनदर्शन
है और भोंदूपन दोष । उत्तम शौच-शुचिता, पवित्रता, निर्लोभ वृत्ति, प्रलोभनमें नहीं फंसना । लोभ कषायका त्यागकर मनमें पवित्रता लाना। शौच गुण है, परन्तु बाह्य सोला और चौकापंथ आदिके कारण छू-छु करके दूसरोंसे घृणा करना दोष है। उत्तम सत्य-प्रामाणिकता, विश्वासपरिपालन, तथ्य और स्पष्ट भाषण । सच बोलना धर्म है, परन्तु परनिन्दाके अभिप्रायसे दूसरोंके दोषोंका ढिंढोरा पीटना दोष है । परको बाधा पहुँचानेवाला सत्य भी कभी दोष हो सकता है। उत्तम संयम-इन्द्रिय-विजय और प्राणि-रक्षा । पाँचों इन्द्रियोंकी विषय-प्रवृत्तिपर अंकुश रखना, उनकी निरर्गल प्रवृत्तिको रोकना, इन्द्रियोंको वशमें करना। प्राणियोंकी रक्षाका ध्यान रखते हुए, खान-पान और जीवन-व्यहारको अहिंसाकी भूमिकापर चलाना । संयम गुण है, पर भावशून्य बाह्य क्रियाकाण्डका अत्यधिक आग्रह दोष है। उत्तमतप-इच्छानिरोध । मनको आशा और तृष्णाओंको रोककर प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य ( सेवा ), स्वाध्याय और व्युत्सर्ग ( परिग्रहत्याग ) की
ओर चित्तवृत्तिका मोड़ना । ध्यान करना भो तप है। उपवास, एकाशन, रसत्याग, एकन्तवास, मौन, कायक्लेश, शरीरको सुकुमार न होने देना आदि बाह्य तप है। इच्छानिवृत्ति करके अकिंचन बननारूप तप गुण है और मात्र कायक्लेश करना, पंचाग्नि तपना, हठयोगकी कठिन क्रियाएँ आदि बालतप हैं। उत्तमत्याग-दान देना, त्यागको भूमिकापर आना। शक्त्यनुसार भूखोंको भोजन, रोगीको औषधि, अज्ञाननिवृत्तिके लिए ज्ञानके साधन जुटाना और प्राणिमात्रको अभय देना। देश और समाजके निर्माणके लिये तन, धन आदिका त्याग । लाभ, पूजा और ख्याति आदिके उद्देश्यसे किया जानेवाला त्याग या दान उत्तम त्याग नहीं है। उत्तम आकिञ्चन्य-अकिञ्चनभाव, बाह्यपदार्थोंमें ममत्वका त्याग । धन-धान्य आदि बाह्य परिग्रह तथा शरीरमें यह मेरा नहीं है, आत्माका धन तो उसके चैतन्य आदि गुण हैं, 'नास्ति मे किंचन'-मेरा कुछ नहीं, आदि भावनाएँ आकिञ्चन्य हैं । भौतिकतासे हटकर विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि