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संवरतत्त्व-निरूपण
२४१ प्राप्त करना । उत्तम ब्रह्मचर्य-ब्रह्म अर्थात् आत्मस्वरूपमे विचरण करना । स्त्री-सुखसे विरक्त होकर समस्त शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियोको आत्मविकासोन्मुख करना। मनको शुद्धिके बिना केवल शारीरिक ब्रह्मचर्य न तो शरीरको ही लाभ पहुँचाता है और न मन तथा आत्मामे ही पवित्रता लाता है। अनुपेक्षा:
सद्विचार, उत्तम भावनाएँ और आत्मचिन्तन अनुप्रेक्षा है। जगतको अनित्यता, अशरणता, संसारका स्वरूप, आत्माका अकेला ही फल भोगना, देहकी भिन्नता और उसकी अपवित्रता, गगादिभावोको हेयता, सदाचारकी उपादेयता, लोकस्वरूपका चिन्तन और बोधिको दुर्लभता आदिका बारबार विचार करके चित्तको सुसंस्कारी बनाना, जिससे वह द्वन्द्व दशामे समताभाव रख सके। ये भावनाएँ चित्तको आस्रवकी ओरसे हटाकर संवरकी तरफ झुकाती है। परीषहजय : ___ साधकको भूख, प्यास, ठंडी, गरमी, डांस-मच्छर, चलने-फिरने-सोने आदिमे कंकड, काटे आदिको बाधाएँ, बध, आक्रोश और मल आदिकी बाधाओको शातिसे सहना चाहिए। नग्न रहकर भी स्त्री आदिको देखकर प्रकृतिस्थ बने रहना, चिरतपस्या करने पर भी यदि ऋद्धि-सिद्धि नहीं होती तो तपस्याके प्रति अनादर नही होना और यदि कोई ऋद्धि प्राप्त हो जाय तो उसका गर्व नहीं करना, किमीके सत्कार-पुरस्कारमे हर्ष और अपमान मे खेद नही करना, भिक्षा-भोजन करते हुए भी आत्मामे दीनता नही आने देना इत्यादि परीषहोके जयसे चारित्रमे दृढनिष्ठा होती है और कर्मोका आस्रव रुक कर संवर होता है । चारित्र:
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहका संपूर्ण परिपालन