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जैनदर्शन
न कभी हुआ है और न होगा । पर्यायान्तर होना ही 'नाश' कहा जाता है । जो कर्मपुद्गल अमुक आत्माके साथ संयुक्त होनेके कारण उस आत्माके गुणोंका घात करने की वजहसे उसके लिए कर्मत्व पर्यायको धारण किये थे, मोक्षमें उनकी कर्मत्व पर्याय नष्ट हो जाती है । यानी जिस प्रकार आत्मा कर्मबन्धनसे छूट कर शुद्ध सिद्ध हो जाता है उसी तरह कर्मपुद्गल भी अपनी कर्मत्व पर्यायसे उस समय मुक्त हो जाते है । यों तो सिद्ध-स्थानपर रहने वाली आत्माओंके साथ पुद्गलों या स्कन्धोंका संयोग सम्बन्ध होता रहता है, पर उन पुद्गलोंकी उनके प्रति कर्मत्व पर्याय नहीं होती, अतः वह बन्ध नहीं कहा जा सकता । अतः जैन परम्परामें आत्मा और कर्मपुद्गलका सम्बन्ध छूट जाना ही मोक्ष है । इस मोक्ष में दोनों द्रव्य अपने निज स्वरूपमें बने रहते हैं, न तो आत्मा दीपककी तरह बुझ जाता है और न कर्मपुद्गलका ही सर्वथा समूल नाश होता है । दोनोंको पर्यायान्तर हो जाती है । जीवकी शुद्ध दशा और पुद्गलकी यथासंभव शुद्ध या अशुद्ध कोई भी अवस्था हो जाती है । ५. संवर-तत्त्व :
संवर रोकनेको कहते है । सुरक्षाका नाम संवर है । जिन द्वारोंसे कर्मोंका आस्रव होता था, उन द्वारोंका निरोध कर देना संवर कहलाता है । आस्रव योगसे होता है, अतः योगकी निवृत्ति ही मूलतः संवरके पदपर प्रतिष्ठित हो सकती है । किन्तु मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको सर्वथा रोकना संभव नहीं है । शारीरिक आवश्यकताओंकी पूर्ति के लिये आहार करना, मलमूत्रका विसर्जन करना, चलना-फिरना, बोलना, रखना, उठाना आदि क्रियाएँ करना ही पड़ती है । अतः जितने अंशोंमें मन, वचन और कायको क्रियाओंका निरोध है, उतने अंशको गुप्ति कहते हैं । गुप्ति अर्थात् रक्षा । मन, वचन और कायकी अकुशल प्रवृत्तियोंसे रक्षा करना । यह गुप्ति ही संवरका साक्षात् कारण है । गुप्तिके