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मोक्षतत्व-निरूपण
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जाता है, किन्तु केवल बुझ जाता है, उसी तरह कृती क्लेशोंका क्षय होने पर किसी दिशा - विदिशा, आकाश या पातालको नही जाकर शान्त हो जाता है । यह वर्णन निर्वाणके स्थानविशेषकी तरफ ही लगता है, न कि स्वरूपकी तरफ । जिस तरह संसारी आत्माका नाम, रूप और आकारादि बताया जा सकता है, उस तरह निर्वाण अवस्थाको प्राप्त व्यक्तिका स्वरूप नही समझाया जा सकता ।
वस्तुत: बुद्धने आत्माके स्वरूपके प्रश्नको ही जब अव्याकृत करार दिया, तब उसकी अवस्थाविशेष - निर्वाणके सम्बन्धमे विवाद होना स्वाभाविक ही था । भगवान् महावीरने मोक्षके स्वरूप और स्थान दोनोके सम्बन्ध मे सयुक्तिक विवेचन किया है । समस्त कर्मोके विनाशके बाद आत्माके निर्मल और निश्चल चैतन्यस्वरूपकी प्राप्ति ही मोक्ष है और मोक्ष अवस्थामे यह जीव समस्त स्थूल और सूक्ष्म शारीरिक बन्धनोसे सर्वथा मुक्त होकर लोकके अग्रभाग मे अन्तिम शरीर के आकार होकर ठहरता है । आगे गति के सहायक धर्मद्रव्यके न होनेसे गति नही होती । मोक्ष न कि निर्वाण :
जैन परम्परामे मोक्ष शब्द विशेष रूपमे व्यवहृत होता है और उसका सीधा अर्थ है छूटना अर्थात् अनादिकालसे जिन कर्मबन्धनोसे यह आत्मा जकड़ा हुआ था, उन बन्धनोकी परतन्त्रताको काट देना । बन्धन कट जाने पर जो बंधा था, वह स्वतन्त्र हो जाता है । यही उसकी मुक्ति है । किन्तु बौद्ध परम्परामे 'निर्वाण' अर्थात् दीपककी तरह बुझ जाना, इस शब्दका प्रयोग होनेसे उसके स्वरूपमे ही गुटाला हो गया है । क्लेशोके बुझनेकी जगह आत्माका बुझना ही निर्वाण समझ लिया गया है । कर्मोके नाश करने का अर्थ भी इतना ही है कि कर्मपुद्गल जीवसे भिन्न हो जाते हैं, उनका अत्यन्त विनाश नही होता । किसी भी सन्का अत्यन्त विनाश
१. जीवाद विश्लेषणं भेदः सतो नात्यन्तसंक्षयः ।" आप्तप० श्लो० ११५ ।