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जैनदर्शन बीजोंके उपजनेके अयोग्य है। वह जगह न तो पूर्व दिशाको ओर है, न पश्चिम दिशाकी ओर, न उत्तर दिशाकी ओर, और न दक्षिण दिशाकी ओर, न ऊपर, न नीचे और न टेढ़े । जहाँ कि निर्वाण छिपा है । निर्वाणके पाये जानेको कोई जगह नहीं है, फिर भी निर्वाण है। सच्ची राह पर चल, मनको ठीक ओर लगा निर्वाणका साक्षात्कार किया जा सकता है।" (पृ० ३६२-४०३ तक हिन्दी अनुवादका सार )
___इन अवतरणोंसे यह मालूम होता है कि बुद्ध निर्वाणका कोई स्थानविशेष नहीं मानते थे और न किसी कालविशेषमें उत्पन्न या अनुत्पन्नको चर्चा इसके सम्बन्धमें की जा सकती है। वैसे उसका जो स्वरूप "इन्द्रियातीत सुखमय, जन्म, जरा, मृत्यु आदिके कलेशोंसे शून्य" इत्यादि शब्दोंके द्वारा वर्णित होता है, वह शून्य या अभावात्मक निर्वाणका न होकर सुखरूप निर्वाणका है।
निर्वाणको बुद्धने आकाशकी तरह असंस्कृत कहा है। असंस्कृतका अर्थ है जिसके उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य न हों । जिसकी उत्पत्ति या अनुत्पत्ति आदिका कोई विवेचन नहीं हो सकता हो, वह असंस्कृत पदार्थ है। माध्यमिक कारिकाकी संस्कृत-परीक्षामें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यको संस्कृतका लक्षण बताया है। सो यदि यह असंस्कृतता निर्वाणके स्थानके सम्बन्धमें है तो उचित ही है; क्योकि यदि निर्वाण किसी स्थानविशेपपर है, तो वह जगतकी तरह सन्ततिको दृष्टिसे अनादि अनन्त ही होगा; उसके उत्पाद-अनुत्पादको चर्चा ही व्यर्थ है । किन्तु उसका स्वरूप जन्म, जरा, मृत्यु आदि समस्त क्लेशोंसे रहित सुखमय ही हो सकता है ।
अश्वघोषने सोदरनन्दमें ( १६।२८,२६ ) निर्वाण प्राप्त आत्माके सम्बन्धमें जो यह लिखा है कि तेलके चुक जाने पर दीपक जिस तरह न किसी दिशाको, न किसी विदिशाको, न आकाशको और न पृथ्वीको
१. श्लोक पृ० १३९ पर देखो।