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आत्मतत्त्व-निरूपण
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होनेके कारण दृष्टिव्यामोह ही है; जो वे उसका मात्र शरीरस्कन्ध ही स्वरूप मान रहे हैं और आत्मदृष्टिको मिथ्यादृष्टि कह रहे हैं । एक ओर वे पृथिव्यादि महाभूतों से आत्माको उत्पत्तिका खण्डन भी करते हैं । और दूसरी ओर रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पाँच स्कन्धों से भिन्न किसी आत्माको मानना भी नहीं चाहते । इनमें वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये चार स्कन्ध चेतनात्मक हो सकते है पर रूपस्कन्धको चेतन कहना चार्वाक के भूतात्मवाद से कोई विशेषता नहीं रखता है । जब बुद्ध स्वयं आत्माको अव्याकृत कोटि में डाल गए हैं तो उनके शिष्योंका दार्शनिक क्षेत्रमें भी आत्मा के विषय में परस्पर विरोधी दो विचारोंमें दोलित रहना कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं । आज महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन बुद्धके इन विचारोंको 'अभौतिक अनात्मवाद जैसे उभय प्रतिषेधक' नामसे पुकारते हैं । वे यह नहीं बता सकते कि आखिर आत्माका स्वरूप है क्या ? क्या वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान स्कन्ध भी रूपस्कन्धकी तरह स्वतंत्र सत् है ? क्या आत्माकी रूपस्कन्धकी तरह स्वतंत्र सत्ता है ? और यदि निर्वाण में चित्तसंतति निरुद्ध हो जाती है तो चार्वाकके एक जन्म तक सीमित देहात्मवादसे इस अनेकजन्म सीमित पर निर्वाण में विनष्ट होनेवाले अभौतिक अनात्मवादमें क्या मौलिक विशेता रह जाती है ? अन्तमें तो उसका निरोध हो ही जाता है ।
महावीर इस असंगतिके जाल में न तो स्वयं पड़े और न शिष्योंको ही उनने इसमें डाला । यही कारण है जो उन्होंने आत्माका समग्रभावसे निरूपण किया है और उसे स्वतन्त्र द्रव्य माना है ।
जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि धर्मका लक्षण है स्वभावमें स्थिर होना । आत्माका अपने शुद्ध आत्मस्वरूपमें लीन होना ही धर्म है और इसकी निर्मल और निश्चल शुद्ध परिणति ही मोक्ष है । यह मोक्ष
आत्मतत्त्वकी जिज्ञासाके बिना हो ही नहीं सकता
।
परतंत्रताके बन्धनको रोगीसे यह कहे कि
तोड़ना स्वातंत्र्य सुखके लिए होता है
।
कोई वैद्य