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जैनदर्शन
किन्तु जो शरीरको भी 'पर' ही मान रहा है तथा दुःखका कारण समझ रहा है वह क्यों उसमें तथा उसके इष्टानिष्ट साधनोंमें रागद्वेष करेगा ? अतः शरीरादिसे भिन्न आत्मस्वरूपका परिज्ञान ही रागद्वेषकी जड़को काट सकता है और वीतरागताको प्राप्त करा सकता है । अतः धर्मकीर्तिका आत्मदर्शनकी बुराइयों का यह वर्णन भी नितान्त भ्रमपूर्ण है
"यः पश्यत्यात्मानं तत्रास्याहमिति शाश्वतः स्नेहः । स्नेहात् सुखेषु तृष्यति तृष्णा दोषाँस्तिरस्कुरुते || गुणदर्शी परितृप्यन् ममेति तत्साधनान्युपादत्ते । तेनात्माभिनिवेशो यावत् तावत् स संसारे ॥" - प्रमाणवार्तिक १।२१६-२० । अर्थात् -- जो आत्माको देखता है, उसे यह मेरा आत्मा है ऐसा नित्य स्नेह होता है । स्नेहसे आत्मसुखमें तृष्णा होती है । तृष्णासे आत्माके अन्य दोषोंपर दृष्टि नहीं जाती, गुण-ही-गुण दिखाई देते हैं । आत्मसुखमें गुण देखनेसे उसके साधनोंमें ममकार उत्पन्न होता है, उन्हें वह ग्रहण करता है । इस तरह जब तक आत्माका अभिनिवेश है तब तक संसार ही है । क्योंकि आत्मदर्शी व्यक्ति जहाँ अपने श्रात्मस्वरूपको उपादेय समझता है वहाँ यह भी समझता है कि शरीरादि परपदार्थ आत्माके हितकारक नहीं हैं । इनमें रागद्वेष करना ही आत्माको बंधमें डालनेवाला है । आत्माके स्वरूपभूत सुखके लिए किसी अन्य साधनके ग्रहणकी आवश्यकता नहीं है किन्तु जिन शरीरादि परपदार्थोंमें मिथ्याबुद्धि कर रखी है उस मिथ्याबुद्धिका ही छोड़ना और आत्मगुणका दर्शन, आत्ममात्र में लीनताका कारण होगा न कि बन्धनकारक परपदार्थोके ग्रहणका । शरीरादि परपदार्थों में होनेवाला आत्माभिनिवेश अवश्य रागादिका सर्जक होता है, किन्तु शरीरादिसे भिन्न आत्मतत्त्वका दर्शन शरीरादिमें रागादि क्यों उत्पन्न करेगा ?
पञ्चस्कन्ध रूप आत्मा नहीं :
यह तो धमकीर्ति तथा उनके अनुयायियोंका आत्मतत्त्व के अव्याकृत