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________________ आत्मतत्त्व-निरूपण २१७ है। निराकुल सुखका उपाय आत्ममात्रनिष्ठा और परपदार्थोसे ममत्वका हटाना ही है। इसके लिए आत्माकी यथार्थ दृष्टि ही आवश्यक है । आत्मदर्शनका यह रूप परपदार्थोमें ढेष करना नहीं सिखाता, किन्तु यह बताता है कि इनमें जो तुम्हारी यह तृष्णा फैल रही है, वह अनधिकार चेष्टा है। वास्तविक अधिकार तो तुम्हारा मात्र अपने विचार अपने व्यवहारपर ही है । अतः आत्माके बास्तविक स्वरूपका परिज्ञान हुए बिना दुःख-निवृत्ति या मुक्तिको सम्भावना ही नहीं की जा सकती। नैरात्म्यवादकी असारताः अतः आ० धर्मकीर्तिकी यह आशंका भी निर्मूल है कि"आत्मनि सति परसंज्ञा स्वपरविभागात् परिग्रहद्वेषौ । अनयोः संप्रतिबद्धाः सर्वे दोषाः प्रजायन्ते ॥" -प्रमाणवा० १।२२१ । अर्थात्-आत्माको 'स्व' माननेसे दूसरोंको 'पर' मानना होगा । स्व और पर विभाग होते ही स्वका परिग्रह और परसे द्वेप होगा। परिग्रह और द्वेष होनेसे रागद्वेषमूलक सैकड़ों अन्य दोप उत्पन्न होते है । ____ यहाँ तक तो ठीक है कि कोई व्यक्ति आत्माको स्व माननेसे आत्मेतरको पर मानेगा। पर स्वपरविभागसे परिग्रह और द्वेप कैसे होंगे ? आत्मस्वरूपका परिग्रह कैसा ? परिग्रह तो शरीर आदि परपदार्थोंका और उसके सुखसाधनोंका होता है, जिन्हें आत्मदर्शी व्यक्ति छोड़ेगा ही, ग्रहण नहीं करेगा। उसे तो जैसे स्त्री आदि सुख-साधन 'पर' हैं वैसे शरीर भी। राग और द्वेष भी शरीरादिके सुख-साधनों और असाधनोंमें होते हैं, सो आत्मदर्शीको क्यों होंगे? उलटे आत्मद्रष्टा शरीरादिनिमित्तक रागद्वेष आदि द्वन्द्वोंके त्याग का ही स्थिर प्रयत्न करेगा। हाँ, जिसने शरीरस्कन्धको ही आत्मा माना है उसे अवश्य आत्मदर्शनसे शरीरदर्शन प्राप्त होगा और शरीरके इष्टानिष्टनिमित्तक पदार्थों में परिग्रह और द्वेष हो सकते हैं,
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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