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जैनदर्शन अन्य चेतन मेरे अनुकूल परिणति करते रहें, शरीर नोरोग हो, मृत्यु न हो, धनधान्य हों, प्रकृति अनुकूल रहे आदि न जाने कितने प्रकारकी चाह इस शेखचिल्ली मानवको होती रहती है। बुद्धने जिस दुःखको सर्वानुभूत बताया है, वह सब अभावकृत हो तो है । महावीरने इस तृष्णाका कारण बताया है 'स्वस्वरूपकी मर्यादाका अज्ञान', यदि मनुष्यको यह पता हो कि'जिनकी मैं चाह करता हूँ. और जिनकी तृष्णा करता हूँ, वे पदार्थ मेरे नहीं है, मैं तो एक चिन्मात्र हूँ' तो उसे अनुचित तृष्णा ही उत्पन्न न होगी । सारांश यह कि दुःखका कारण तृष्णा है, और तृष्णाको उद्भूति स्वाधिकार एवं स्वरूपके अज्ञान या मिथ्याज्ञानके कारण होती है, परपदार्थोको अपना माननेके कारण होती है। अतः उसका उच्छेद भी स्वस्वरूपके सम्यग्ज्ञान यानी स्वपरविवेकसे ही हो सकता है। इस मानवने अपने स्वरूप और अधिकारको सीमाको न जानकर सदा मिथ्या आचरण किया है और परपदार्थोके निमित्तसे जगत्में अनेक कल्पित ऊंच-नोच भावोंको सृष्टि कर मिथ्या अहंकारका पोषण किया है। शरीराश्रित या जीविकाश्रित ब्राह्मण, क्षत्रियादि वर्णोको लेकर ऊंच-नीच व्यवहारकी भेदक भित्ति खड़ी कर, मानवको मानवसे इतना जुदा कर दिया जो एक उच्चाभिमानी मांसपिण्ड दूसरेकी छायासे या दूसरेको छूनेसे अपनेको अपवित्र मानने लगा । बाह्य परपदार्थोके संग्रही और परिग्रहीको महत्त्व देकर इसने तृष्णाकी पूजा की । जगत्मे जितने संघर्ष और हिंसाएँ हुई हैं वे सब परपदार्थोकी छीना-झपटीके कारण हुई है। अतः जब तक मुमुक्षु अपने वास्तविक स्वरूपको तथा तृष्णाके मूल कारण 'परमें आत्मबुद्धि'को नहीं समझ लेना तब तक दुःख-निवृत्तिकी समुचित भूमिका ही तैयार नहीं हो सकती।
बुद्धने संक्षेपमे पांच स्कन्धोंको दुःख कहा है। पर महावीरने उसके भीतरी तत्त्वज्ञानको भी बताया। चूंकि ये स्कन्ध आत्मस्वरूप नहीं हैं, अतः इनका संसर्ग ही अनेक रागादिभावोंका सर्जक है और दुःखस्वरूप