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आत्मतत्त्व-निरूपण
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स्वभावकी ओर दृष्टि डालने लगता है और इसी विवेकदृष्टि या सम्यग्दर्शनसे परपदार्थोंसे रागद्वेष हटाकर स्वरूपमें लीन होने लगता है। इसीके कारण आस्रव रुकते हैं और चित्त निराम्रव होने लगता है। इस प्रतिक्षण परिवर्तनशील अनन्त द्रव्यमय लोकमें मैं एक आत्मा हूँ, मेरा किसी दूसरे आत्मा या पुद्गलद्रव्योंसे कोई सम्बन्ध नहीं है । मैं अपने चैतन्यका स्वामी है। मात्र चैतन्यरूप हूँ। यह शरीर अनन्त पुद्गलपरमाणुओंका एक पिण्ड है। इसका मैं स्वामी नहीं हूँ। यह सब पर द्रव्य हैं। परपदार्थोंमें इष्टानिष्ट बुद्धि करना ही संसार है। आजतक मैंने परपदार्थोको अपने अनुकूल परिणमन करानेकी अनधिकार चेष्टा ही की है। मैंने यह भी अनधिकार चेष्टा की है कि संमारके अधिक-से-अधिक पदार्थ मेरे अधीन हों, जैसा मैं चाहूँ, वैसा वे परिणमन करें। उनकी वृत्ति मेरे अनुकूल हो। पर मूर्ख, तू तो एक व्यक्ति है। तू तो केवल अपने परिणमन पर अर्थात् अपने विचारों और क्रियापर हो अधिकार रख सकता है। परपदार्थोपर तेरा वास्तविक अधिकार क्या है ? तेरी यह अनधिकार चेष्टा ही राग और द्वेषको उत्पन्न करती है। तू चाहता है कि शरीर, स्त्री, पुत्र, परिजन आदि सब तेरे इशारेपर चलें । संसारके समस्त पदार्थ तेरे अधीन हों, तू त्रैलोक्यको अपने इशारेपर नचानेवाला एकमात्र ईश्वर बन जाय । यह सब तेरी निरधिकार चेष्टाएँ हैं । तू जिम तरह मंसारके अधिकतम पदार्थोंको अपने अनुकूल परिणमन कराके अपने अधीन करना चाहता है उसी तरह तेरे जैसे अनन्त मूढ़ चेतन भी यही दुर्वासना लिये हुए हैं और दूसरे द्रव्योंको अपने अधीन करना चाहते हैं। इसी छीना-झपटीमें संघर्ष होता है, हिंसा होती है, राग-द्वेष होते है और होता है अन्ततः दुःख ही दुःख ।
सुख और दुःखको स्थूल परिभाषा यह है कि 'जो चाहे सो होवे, इसे कहते हैं सुख और चाहे कुछ और होवे कुछ या जो चाहे वह न होवे इसे कहते हैं दुःख ।' मनुष्यकी चाह सदा यही रहती है कि मुझे सदा इष्टका संयोग रहे और अनिष्टका संयोग न हो। समस्त भौतिक जगत् और