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जैनदर्शन अहङ्कार करनेके कारण हुई है, अतः इस अशुद्ध दशाका अन्त भी स्वरूपके ज्ञानसे ही हो सकता है । जब इस आत्माको यह तत्त्वज्ञान होता है कि मेरा स्वरूप तो अनन्त चैतन्य, वीतराग, निर्मोह, निष्कषाय, शान्त, निश्चल, अप्रमत्त और ज्ञानरूप है। इस स्वरूपको भुलाकर परपदार्थोंमें ममकार और शरीरको अपना माननेके कारण राग, द्वेष, मोह, कषाय, प्रमाद और मिथ्यात्व आदि विकाररूप मेरी दशा हो गयी है। इन कषायोंकी ज्वालासे मेरा स्वरूप समल और योगके कारण चञ्चल हो गया है। यदि परपदार्थोंसे ममकार और रागादि भावोंसे अहङ्कार हट जाय तथा आत्मपरविवेक हो जाय तो यह अशुद्ध दशा और ये रागादि वासनाएँ अपने आप क्षीण हो जायगी। इस तत्त्वज्ञानसे आत्मा विकारोंको क्षीग करता हुआ निर्विकार चैतन्यरूप हो जाता है। इसी शुद्धिको मोक्ष कहते हैं । यह मोक्ष जब तक शुद्ध आत्मस्वरूपका बोध न हो, तब तक कैसे हो सकता है ?
आत्मदृष्टि ही सम्यग्दृष्टि :
बुद्धके तत्त्वज्ञानका प्रारम्भ दुःखसे होता है और उसकी समाप्ति होती है दुःखनिवृत्ति में । वे समझते हैं कि आत्मा अर्थात् उपनिषद्वादियोंका नित्य आत्मा और नित्य आत्मामें स्वबुद्धि और दूसरे पदार्थोंमें परबुद्धि होने लगती है। स्वपर विभागसे राग-द्वेष और राग-द्वेषसे यह संसार बन जाता है। अतः समस्त अनर्थोंकी जड़ आत्मदृष्टि है। वे इस
ओर ध्यान नहीं देते कि आत्माको नित्यता और अनित्यता राग और विरागका कारण नहीं है। राग और विराग तो स्वरूपके अज्ञान और स्वरूपके सम्यग्ज्ञानसे होते हैं। रागका कारण है परपदार्थोंमें ममकार करना । जब इस आत्माको समझाया जाता है कि मूर्ख, तेरा स्वरूप तो निर्विकार अखण्ड चैतन्य है, तेरा इन स्त्री-पुत्रादि तथा शरीरमें ममत्व करना विभाव है, स्वभाव नहीं। तब यह सहज ही अपने निर्विकार