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आत्मतत्त्व-निरूपण मृदुतर और मृदुतम आदि रूपसे परिवर्तन बराबर होता रहता है और अन्तमें जो स्थिति होती है, उसके अनुसार उन कर्मोको शुभ या अशुभ कहा जाता है।
यह भौतिक जगत् पुद्गल और आत्मा दोनोंसे प्रभावित होता है। जब कर्मका एक भौतिक पिण्ड, जो विशिष्ट शक्तिका स्रोत है, आत्मासे सम्बद्ध होता है, तो उसकी सूक्ष्म और तीव्रशक्तिके अनुसार बाह्य पदार्थ भी प्रभावित होते है और प्राप्तसामग्रीके अनुसार उस संचित कर्मका तीव्र, मन्द, और मध्यम आदि फल मिलता है। इस तरह यह कर्मचक्र अनादिकालसे चल रहा है और तब तक चालू रहेगा जब तक कि बन्धकारक मूलरागादिवासनाओंका नाश नहीं कर दिया जाता।
बाह्य पदार्थोके-नोकर्मोके समवधानके अनुसार कर्मोका यथासम्मव प्रदेशोदय या फलोदय रूपसे परिपाक होता रहता है। उदयकालमें होनेवाले तीव्र, मध्यम और मन्द शुभाशुभ भावोंके अनुसार आगे उदयमें आनेवाले कर्मोके रसदानमे भी अन्तर पड़ जाता है। तात्पर्य यह कि कर्मोका फल देना, अन्य रूपमें देना या न देना, बहुत कुछ हमारे पुरुपार्थके ऊपर निर्भर करता है। ___ इस तरह जैन दर्शनमें यह आत्मा अनादिसे अशुद्ध माना गया है और प्रयोगसे यह शुद्ध हो सकता है। एकबार शुद्ध होनेके बाद फिर अशुद्ध होनेका कोई कारण नहीं रह जाता। आत्माके प्रदेशोंमें संकोच और विस्तार भी कर्मके निमित्तसे ही होता है। अतः कर्मनिमित्तिके हट जानेपर आत्मा अपने अन्तिम आकारमें रह जाता है और ऊर्ध्व लोकके अग्र भागमें स्थिर हो अपने अनन्त चैतन्यमें प्रतिष्ठित हो जाता है।
__ अतः भ० महावीरने बन्ध-मोक्ष और उसके कारणभूत तत्त्वोके सिवाय उस आत्माका ज्ञान भी आवश्यक बताया जिसे शुद्ध होना है और जो वर्तमानमें अशुद्ध हो रहा है । आत्माकी अशुद्ध दशा स्वरूप-प्रच्युतिरूप है । चूँकि यह दशा स्वस्वरूपको भूलकर परपदार्थोंमें ममकार और