________________
२१२
जैनदर्शन
आती है तो वह पहलेको निर्बल रेखाको साफकर उस जगह अपना गहरा प्रभाव कायम कर देती है । यानी यदि वह रेखा सजातीय संस्कारकी है तो उसे और गहरा कर देती है और यदि विजातीय संस्कारकी है तो उसे पोंछ देती है । अन्तमे कुछ ही अनुभव-रेखाएँ अपना गहरा या उथला अस्तित्व कायम रखती है। इसी तरह आज जो रागद्वेषादिजन्य संस्कार उत्पन्न होते है और कर्मबन्धन करते है; वे दूसरे ही क्षण शील, व्रत और संयम आदिको पवित्र भावनाओसे धुल जाते है या क्षीण हो जाते है। यदि दूसरे ही क्षण अन्य रागादिभावोंका निमित्त मिलता है, तो प्रथमबद्ध पुद्गलोंमे और भी काले पुद्गलोंका संयोग तीव्रतासे होता जाता है । इस तरह जीवनके अन्तमे कर्मोका बन्ध, निर्जरा, अपकर्षण (घटती),उत्कर्षण (बढती), संक्रमण (एक दूसरेके रूपमे बदलना) आदि होते-होते जो रोकड़ बाकी रहती है वही सूक्ष्म कर्म-शरीरके रूपमे परलोक तक जाती है। जैसे तेज अग्निपर उबलती हुई बटलोईमे दाल, चावल, शाक आदि जो भी डाला जाता है उसकी ऊपर-नीचे अगल-बगलमे उफान लेकर अन्तमे एक खिचड़ी-सी बन जाती है, उमी तरह प्रतिक्षण बँधनेवाले अच्छे या बुरे कर्मोमे, शुभभावोंसे शुभकर्मोमे रस-प्रकर्ष और स्थितिवृद्धि होकर अशुभ कर्मोमे रमहीनता और स्थितिच्छेद हो जाता है । अन्तमे एक पाकयोग्य स्कन्ध बच रहता है, जिसके क्रमिक उदयसे रागादि भाव और सुखादि उत्पन्न होते है ।
अथवा जैसे पेटम जठराग्निसे आहारका मल, मूत्र, स्वेद आदिके रूपसे कुछ भाग बाहर निकल जाता है, कुछ वहीं हजम होकर रक्तादि रूपसे परिणत होता है और आगे जाकर वीर्यादिरूप बन जाता है। बीचमें चूरण-चटनी आदिके संयोगसे उसकी लघुपाक, दीर्घपाक आदि अवस्थाएं भी होती है, पर अन्तमे होनेवाले परिपाकके अनुसार ही भोजनको सुपच या दुष्पच कहा जाता है, उसी तरह कर्मका भी प्रतिसमय होनेवाले अच्छे और बुरे भावोंके अनुसार तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मध्यम,