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जैनदर्शन
'तुम्हें इससे क्या मतलब कि आगे क्या होगा, दवा खाये जाओ;' तो रोगी तत्काल वैद्यपर विश्वास करके दवा भले ही खाता जाय, परन्तु आयुर्वेद - की कक्षा में विद्यार्थियोंकी जिज्ञासाका समाधान इतने मात्रसे नहीं किया जा सकता । रोगकी पहचान भी स्वास्थ्य के स्वरूपको जाने बिना नहीं हो सकती । जिन जन्मरोगियोंको स्वास्थ्यके स्वरूपकी झांकी ही नहीं मिली वे तो उस रोगको रोग हो नहीं मानते और न उसकी निवृत्तिकी चेष्टा ही करते हैं । अतः हर तरह मुमुक्षुके लिए आत्मतत्त्वका समग्र ज्ञान आवश्यक है ।
आत्माके तीन प्रकार :
आत्मा तीन प्रकारके हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । जो शरीर आदि परपदार्थोंको अपना रूप मानकर उनको ही प्रियभोगसामग्रीमें आसक्त हैं वे बहिर्मुख जीव बहिरात्मा हैं । जिन्हें स्वपरविवेक या भेदविज्ञान उत्पन्न हो गया है, जिनकी शरीर आदि बाह्यपदार्थोंसे आत्मदृष्टि हट गई है वे सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा है । जो समस्त कर्ममल - कलंकोंसे रहित होकर शुद्ध चिन्मात्र स्वरूपमें मग्न है वे परमात्मा हैं । यही संसारी आत्मा अपने स्वरूपका यथार्थ परिज्ञानकर अन्तर्दृष्टि हो क्रमशः परमात्मा बन जाता है । अतः आत्मधर्मकी प्राप्ति या बन्धन मुक्ति के लिये आत्मतत्त्वका परिज्ञान नितान्त आवश्यक है ।
चारित्रका आधार :
चारित्र अर्थात् अहिंसाकी साधनाका मुख्य आधार जीवतत्त्वके स्वरूप और उसके समान अधिकारको मर्यादाका तत्त्वज्ञान ही बन सकता है । जब हम यह जानते और मानते हैं कि जगतमें वर्तमान सभी 'आत्माएँ अखंड और मूलतः एक - एक स्वतन्त्र समानशक्तिवाले द्रव्य हैं । जिस प्रकार हमें अपनी हिंसा रुचिकर नहीं हैं, हम उससे विकल होते हैं और