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आत्मतत्त्व-निरूपण
२०७ प्रत्येकका होता रहता है, एक सर्वमान्य सिद्धान्त है। इस सिद्धान्तके अनुसार आत्मा एक स्वतन्त्र सत् है और पुद्गलपरमाणु भी स्वतन्त्र सत् । अनादिकालसे यह आत्मा पुद्गलसे उसी तरह सम्बद्ध मिलता है जैसे कि खानिसे निकाला गया सोना मैलसे संयुक्त मिलता है । आत्माको अनादिवद्ध माननेका कारण :
आज आत्मा स्थूल शरीर और सूक्ष्म कमगरीरसे बद्ध मिलता है । इसका ज्ञान संवेदन, सुख, दुःख और यहाँ तक कि जीवन-शक्ति भी शरीराधीन है । शरीरमें विकार होनेसे ज्ञानतंतुओंमें क्षीणता आ जाती है और स्मृतिभ्रंश तथा पागलपन आदि देखे जाते है । संसारी आत्मा शरीरबद्ध होकर ही अपनी गतिविधि करता है। यदि आत्मा शुद्ध होता तो शरीरसम्बन्धका कोई कारण नहीं था। शरीरसम्बन्ध या पुनर्जन्मके कारण है-राग, द्वेप, मोह और कपायादिभाव । शुद्ध आत्मामें ये विभाव परिणाम हो ही नहीं सकते । चकि आज ये विभाव और उनका फलशरीरसम्बन्ध प्रत्यक्षसे अनुभवमें आ रहा है, अतः मानना होगा कि आज तक इनकी अशुद्ध परम्परा ही चली आई है।
भारतीय दर्शनोंमें यही एक ऐसा प्रश्न है, जिसका उत्तर विधिमुखसे नहीं दिया जा सकता । ब्रह्ममें अविद्या कब उत्पन्न हुई ? प्रकृति और पुरुपका संयोग कब हुआ ? आत्मासे शरीरसम्बन्ध कब हुआ? इन सब प्रश्नोंका एक मात्र उत्तर है-'अनादि' से । किसो भो दर्शनने ऐसे समयकी कल्पना नहीं की है जिस समय समग्र भावसे ये समस्त संयोग नष्ट होंगे
और संसार समाप्त हो जायगा। व्यक्तिशः अमुक आत्माओंसे पुद्गलसंसर्ग या प्रकृतिसंसर्गका वह रूप समाप्त हो जाता है, जिसके कारण उसे संसरण करना पड़ता है। इस प्रश्नका दूसरा उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि यदि ये शुद्ध होते तो इनका संयोग ही नहीं हो सकता था। शुद्ध होनेके वाद कोई ऐसा हेतु नहीं रह जाता जो प्रकृतिसंसर्ग, पुद्गल