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जैनदर्शन
सम्बन्ध या अविद्योत्पत्ति होने दे। इसीके अनुसार यदि आत्मा शुद्ध होता तो कोई कारण उसके अशुद्ध होनेका या शरीरसम्बन्धका नहीं था । जब ये दो स्वतन्त्रसत्ताक द्रव्य है तब उनका संयोग चाहे वह कितना हो पुराना क्यों न हो; नष्ट किया जा सकता है और दोनोंको पृथक्-पृथक् किया जा सकता है | उदाहरणार्थ - खदान से सर्वप्रथम निकाले गये सोनेमे कीट आदि मैल कितना ही पुराना या असंख्य कालसे लगा हुआ क्यों न हो, शोधक प्रयोगोंसे अवश्य पृथक् किया जा सकता है और सुवर्ण अपने शुद्ध रूपमें लाया जा सकता है । तब यह निश्चय हो जाता है कि सोनेका शुद्ध रूप यह है तथा मैल यह हैं । सारांश यह कि जीव और पुद्गलका बंध अनादिमे है और वह बन्ध जीवके अपने राग-द्वेष आदि भावोंके कारण उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है । जब ये रागादिभाव क्षीण होते है, तब वह बंध आत्मामे नये विभाव उत्पन्न नहीं कर सकता और धीरे-धीरे या एक झटके में ही समाप्त हो सकता है । चूँकि यह बन्ध दो स्वतन्त्र द्रव्यों का है, अतः टूट सकता है या उम अवस्थामें तो अवश्य पहुँच सकता है जब साधारण संयोग बना रहने पर भी आत्मा उससे निस्मंग और निर्लेप बन जाता है ।
आज इस अशुद्ध आत्माकी दशा अर्धभौतिक जैमी हो रही है । इन्द्रियाँ यदि न हों तो सुनने और देखने आदिको शक्ति रहने पर भी वह शक्ति जैसी-की-तैसी रह जाती है और देखना और सुनना नहीं होता । विचारशक्ति होनेपर भी यदि मस्तिष्क ठीक नहीं है तो विचार और चिन्तन नहीं किये जा सकते । यदि पक्षाघात हो जाय तो शरीर देखनेमे वैसा ही मालूम होता है पर सब शून्य हो जाता है । निष्कर्ष यह कि अशुद्ध आत्माकी दशा और इसका मारा विकास बहुत कुछ पुद्गलके अधीन हो रहा है । और तो जाने दोजिए, जीभके अमुक-अमुक हिस्सोंमें अमुक-अमुक रसोंके चखनेकी निमित्तता देखी जाती है । यदि जीभके आधे हिस्से में लकवा मार जाय तो शेष हिस्सेसे कुछ रसोंका ज्ञान हो