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जैनदर्शन तात्पर्य यह कि आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये पाँच तत्त्व भावरूपमें जीवकी पर्याय है और द्रव्यरूपमें पुद्गलकी। जिस भेदविज्ञानसे-आत्मा और परके विवेकज्ञानसे-कैवल्यकी प्राप्ति होती है उस आत्मा और परमें ये सातों तत्त्व ममा जाते है । वस्तुतः जिस परको परतन्त्रताको हटाना है और जिम स्वको स्वतन्त्र होना है उन स्व और परके ज्ञानमें ही तत्त्वज्ञानको पूर्णता हो जाती है। इसीलिए संक्षेपमें मुक्तिका मूल साधन 'स्वपर-विवेकज्ञान' को बताया गया है । तत्त्वोंकी अनादिता :
भारतीय दर्शनोंमें सबने कोई-न-कोई पदार्थ अनादि माने ही है । नास्तिक चर्वाक भी पृथ्वी आदि महाभूतोंको अनादि मानता है । ऐसे किसी क्षणकी कल्पना नहीं की जा सकती, जिसके पहले कोई अन्य क्षण न रहा हो । समय कबसे प्रारम्भ हुआ और कब तक रहेगा, यह बतलाना सम्भव नहीं है । जिस प्रकार काल अनादि और अनन्त है और उसकी पूर्वावधि निश्चित नहीं की जा सकतो, उसी तरह आकाशको भी कोई क्षेत्रगत मर्यादा नहीं बताई जा सकती-"सर्वतो हि अनन्तं तत्" आदि अन्त सभी
ओरसे आकाश अनन्त है। आकाश और कालकी तरह हम प्रत्येक सत्के विषयमें यह कह सकते है कि उसका न किसी खास क्षणमें नूतन उत्पाद हुआ है और न किसी समय उसका समूल विनाश ही होगा। "भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो।"
-पंचास्तिकाय गा० १५ । "नाऽसतो विद्यते भावो नाभावौ विद्यते सतः।"
-भगवत्गीता २।१६ । अर्थात्-किसी असत्का सत् रूपसे उत्पाद नहीं होता और न किसी सत्का अत्यन्त विनाश हो होता है। जितने गिने हुए सत् हैं, उनकी संख्यामें न एककी वृद्धि हो सकती है और न एकको हानि । हाँ, रूपान्तर