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आत्मतत्त्व-निरूपण
२०५ सर्वप्रथम होना ही चाहिए, जो कि बँधा है और जिसे छूटना है । इसीलिए भगवान् महावीरने बंध (दुःख ), आम्रव ( दुःखके कारण ), मोक्ष (निरोध ), संवर और निर्जरा ( निरोध-मार्ग ) इन पाँच तत्त्वोंके माथ ही साथ उस जीव तत्त्वका ज्ञान करना भी आवश्यक बताया, जिस जीवको यह संसार होता है और जो बन्धन काटकर मोक्ष पाना चाहता है।
बंध दो वस्तुओंका होता है । अतः जिस अजीवके सम्पर्कसे इसकी विभावपरिणति हो रही है और जिसमे राग-द्वेप करनेके कारण उसकी धारा चल रही है और जिन कर्मपुद्गलोंसे बद्ध होनेके कारण यह जीव स्वस्वरूपसे च्युत है उस अजीवतत्त्वका ज्ञान भी आवश्यक है। तात्पर्य यह कि जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व मुमुक्षुके लिये सर्वप्रथम ज्ञातव्य है । तत्त्वोंके दो रूप :
आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तत्त्व दो दो प्रकारके होते है । एक द्रव्यरूप और दूसरे भावरूप । जिन मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योगरूप आत्मपरिणामोंसे कर्मपुद्गलोंका आना होता है, वे भाव भावानव कहे जाते है और पुद्गलोंमे कर्मत्वका आजाना द्रव्यानव है; अर्थात् भावानव जीवगत पर्याय है और द्रव्यास्रव पुद्गलगत । जिन कषायोंसे कर्म बंधते है वे जीवगत कपायादि भाव भावबंध है और पुद्गलकर्मका आत्मासे सम्बन्ध हो जाना द्रव्यबन्ध है । भावबन्ध जीवरूप है और द्रव्यबन्ध पुद्गलरूप । जिन क्षमा आदि धर्म, ममिति, गुप्ति और चारित्रोंसे नये कर्मोका आना रुकता है वे भाव भावमंवर है और कर्मोका रुक जाना द्रव्यमवर है । इसी तरह पूर्वसंचित कर्मोका निर्जरण जिन तप आदि भावोंसे होता है वे भाव भावनिर्जरा है और कर्मोका झड़ना द्रव्यनिर्जरा है । जिन ध्यान आदि साधनोंसे मुक्ति प्राप्त होती है वे भाव भावमोक्ष है और कर्मपुद्गलोंका आत्मासे सम्बन्ध टूट जाना द्रव्यमोक्ष है।