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जैनदर्शन तृष्णाके अत्यन्त निरोध या विनाशको निरोध-आर्यसत्य कहते है । दुःखनिरोधका मार्ग हैआष्टागिक मार्ग। सम्यग्दृष्टि, सम्यक्संकल्प, सम्यक्वचन, सम्यक्कर्म, सम्यक् आजीव, मम्यक् प्रयत्न, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि । नंगत्म्य-भावना ही मुरयम्पसे मार्ग है । बुद्धने आत्मदृष्टि या सत्त्वदृष्टिको ही मिथ्यादर्शन कहा है। उनका कहना है कि एक आत्माको शाश्वत या स्थायी समझकर ही व्यक्ति स्नेहवश उसके सुखमे तृष्णा करता है। तृष्णाके कारण उसे दोष नहीं दिखाई देते और गुणदर्शन कर पुनः तृष्णावग सुखसाधनोमे ममत्व करता है, उन्हे ग्रहण करता है। तात्पर्य यह कि जब तक 'आत्माभिनिवेश' है तब तक वह संसारमे रुलता है । इम एक आत्माके माननेमे वह अपनेको स्व और अन्यको पर समझता है । स्व-परविभागसे राग और द्वेष होते है, और ये राग-द्वेष ही समस्त संसार-परम्पगके मूल स्रोत है । अतः इम सर्वानर्थमूल आत्मदृष्टिका नाश कर नगत्म्य-भावनासे दुःख-निरोध होता है । बुद्धका दृष्टिकोण : ___ उपनिषद्का तत्त्वज्ञान जहाँ आत्मदर्शनपर जोर देता है और आत्मदर्शनको हो मोक्षका परम साधन मानता है और मुमुक्षके
१. “यः पश्यत्यान्मान तत्रास्याहमिति शाश्वतः स्नेहः ।
म्नेहान् मुग्वेषु तृति तृणा दोपास्तिरन्कुरुते ॥ गुणदशा परितृष्यन् ममेत तत्साधनान्युपादत्ते । तेनात्माभिनिवेशो यावत् तावत्म संसारे ॥ आत्मनि सति परसंशा स्वपरविभागात् परिग्रहद्वपौ। अनयोः सम्प्रतिबद्धाः सर्वे दोषाः प्रजायन्ते ॥"
-प्र०वा० १२१९-२१॥ "तस्मादनादिसन्तानतुल्यजातीयबीजिकाम् । उत्खातमूला कुरुत सत्त्वदृष्टि मुमुक्षवः ।।"
-प्रमाणवा० १२२५८ ।