________________
२०१
तत्त्व-निरूपण लिए आत्मज्ञानको हो जीवनका सर्वोच्च साध्य समझता है, वहाँ बुद्धने इस आत्मदर्शनको ही संसारका मूल कारण माना है । आत्मदृष्टि, सत्त्वदृष्टि, सत्कायदृष्टि, ये सब मिथ्या दृष्टियाँ है । औपनिपद तत्त्वज्ञानकी ओटमें, याज्ञिक क्रियाकाण्डको जो प्रश्रय मिल रहा था उसोको यह प्रतिक्रिया थी कि बुद्धको 'आत्मा'शब्दसे हो घृणा हो गई थी। आत्माको स्थिर मानकर उमे स्वर्गप्राप्ति आदिके प्रलोभनसे अनेक क्रूर यज्ञोंमे होनेवाली हिंसाके लिए उकमाया जाता था। इस शाश्वत आत्मवादसे ही राग और उपकी अमरवेलें फैलती है। मजा तो यह है कि बुद्ध और उपनिषद्वादो दोनों ही राग, द्वेष और मोहका अभाव कर वीतरागता और वासनानिमुक्तिको अपना चरम लक्ष्य मानते थे, पर साधन दोनोंके इतने जुदे थे कि एक जिम आत्मदर्शनको मोक्षका कारण मानता था, दूसरा उसे संसारका मूलबीज । इसका एक कारण और भी था कि बुद्धका मानस दार्शनिकको अपेक्षा सन्त ही अधिक था। वे ऐसे गोलगोल शब्दोंको बिलकुल हटा देना चाहते थे, जिनका निर्णय न हो सके या जिनकी ओटमे 'मिथ्या धारणाओं और अन्धविश्वासोंकी सृष्टि होती हो । 'आत्मा' शब्द उन्हें ऐसा हो लगा। बुद्धको नैरात्म्य-भावनाका उद्देश्य 'बोधिचर्यावतार' ( पृ० ४४६ ) में इस प्रकार बताया है
“यतस्ततो वाऽस्तु भयं यद्यहं नाम किंचन ।
अहमेव न किञ्चिच्चेत् कस्य भोतिर्भविष्यति ।।" अर्थात्-यदि 'मैं' नामका कोई पदार्थ होता तो उसे इसमे या उससे भय हो सकता था, परन्तु जब 'मै' हो नहीं है, तब भय किमे होगा ?
बुद्ध जिस प्रकार इस 'शाश्वत आत्मवाद' रूपी एक अन्तको खतरा मानते थे, उसी तरह वे भौतिकवादको भी दूसरा अन्त समझकर उसे खतरा ही मानते थे। उन्होंने न तो भौतिकवादियोंके उच्छेदवादको ही माना और न उपनिषद्वादियोंके शाश्वतवादको ही । इसीलिए उनका मत