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तत्त्व-निरूपण
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टूट सकता है।' इन मूलभूत चार मुद्दोंमें तत्त्वज्ञानकी परिसमाप्ति भारतीय दर्शनोंने की है ।
बौद्धोंके चार आर्यसत्य :
म० बुद्धने भी निर्वाणके लिए चिकित्साशास्त्रकी तरह दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग इन चार आर्यसत्योंका' उपदेश दिया है । वे कभी भी 'आत्मा क्या है, परलोक क्या है' आदिके दार्शनिक विवादोंमें न तो स्वयं गये और न शिष्योंको ही जाने दिया । इस सम्बन्धका बहुत उपयुक्त उदाहरण मिलिन्द प्रश्नमें दिया गया है कि 'जैसे किसी व्यक्तिको विपसे बुझा हुआ तीर लगा हो और जब बन्धुजन उस तीरको निकालनेके लिए विषवैद्यको बुलाते हैं, तो उस समय उसकी यह मीमांसा करना जिस प्रकार निरर्थक है कि 'यह तीर किस लोहेसे बना हैं ? किसने इसे बनाया ? कब बनाया ? यह कबतक स्थिर रहेगा ? यह विपवैद्य किस गोत्रका है ?' उसी तरह आत्माकी नित्यता और परलोक आदिका विचार निरर्थक है, वह न तो बोधिके लिए और न निर्वाणके लिए ही उपयोगी है ।
इन आर्यसत्योंका वर्णन इस प्रकार है । दुःख -सत्य - जन्म भी दुःख है, जरा भी दुःख है, मरण भी दुःख है, शोक, परिवेदन, विकलता, इष्टवियोग, अनिष्ट-संयोग, इष्टाप्राप्ति आदि सभी दुःख हैं । संक्षेपमें पाँचों उपादान स्कन्ध ही दुःखरूप हैं । समुदय - सत्य -- कामकी तृष्णा, भवकी तृष्णा और विभवकी तृष्णा दुःखको उत्पन्न करनेके कारण समुदय कही जाती है । जितने इन्द्रियोंके प्रिय विषय हैं, इष्ट रूपादि हैं, इनका वियोग न हो, वे सदा बने रहें, इस तरह उनसे संयोगके लिए चित्तकी अभिनन्दिनी वृत्तिको तृष्णा कहते है ! यही तृष्णा समस्त दुःखोंका कारण है । निरोध-सत्य
१. “सत्यान्युक्तानि चत्वारिं दुःखं समुदयस्तथा ।
निरोधो मार्ग एतेषां यथाभिसमयं क्रमः ॥” – अभिध० को० ६ । २ ।