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________________ १९६ जैनदर्शन जुदी हैं, अतः दही ही खाया जाता है, ऊँटका शरीर नहीं । सांख्यके मतसे यह समाधान नहीं हो सकता; क्योंकि जब एक ही प्रधान दही और ऊँट दोनों रूपसे विकसित हुआ है, तब उनमें भेदका नियामक क्या है ? एक तत्त्वमें एक ही समय विभिन्न देशों में विभिन्न प्रकारके परिणमन नहीं हो सकते । इसी तरह यदि घट अवयवो और उसके उत्पादक मिट्टीके परमाणु परस्पर सर्वथा विभिन्न है; तो क्या नियामक है जो घड़ा वहीं उत्पन्न हो अन्यत्र नहीं ? प्रतिनियत कार्य-कारणकी व्यवस्थाके लिए कारणमें योग्यता या शक्तिरूपसे कार्यका सद्भाव मानना आवश्यक है । यानी कारणमें कार्योत्पादनको योग्यता या शक्ति रहनी ही चाहिए । योग्यता, शक्ति और सामर्थ्य आदि एकजातीय मूलद्रव्योंमें समान होने पर भी विभिन्न अवस्थाओं में उनकी सीमा नियत हो जाती है और इसी नियतता के कारण जगत् में अनेक प्रकारके कार्यकारणभाव बनते है । यह तो हुई अनेक पुद्गलद्रव्यों के संयुक्त स्कन्धकी बात । एक द्रव्यकी अपनी क्रमिक अवस्थाओंमें अमुक उत्तर पर्यायका उत्पन्न होना केवल द्रव्ययोग्यतापर ही निर्भर नहीं करता, किन्तु कारणभूत पर्यायकी तत्पर्याययोग्यतापर भी । प्रत्येक द्रव्यके प्रतिसमय स्वभावतः उत्पाद - व्यय- ध्रौव्य रूपसे परिणामी होनेके कारण सारी व्यवस्थाएँ सदसत्कार्यवादके आधारसे जम जाती है । विवक्षित कार्य अपने कारणमें कार्याकारसे असत् होकर भी योग्यता या शक्तिके रूपमें सत् है । यदि कारणद्रव्य में वह शक्ति न होती तो उससे वह कार्य उत्पन्न ही नहीं हो सकता था । एक अविच्छिन्न प्रवाहमें चलनेवाली धाराबद्ध पर्यायोंका परस्पर ऐसा कोई विशिष्ट सम्बन्ध तो होना ही चाहिए, जिसके कारण अपनी पूर्व पर्याय ही अपनी उत्तर पर्यायमें उपादान कारण हो सके, दूसरेकी उत्तर पर्याय नहीं । यह अनुभवसिद्ध व्यवस्था न तो सांख्यके सत्कार्यवाद में सम्भव है; और न बौद्ध तथा नैयायिक आदिके असत्कार्यवादमें हो । सांख्यके पक्ष में कारणके एक होनेसे इतनी अभिन्नता है कि कार्यभेदको
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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