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जीवद्रव्य विवेचन
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की पिण्डरूप पर्यायमें साक्षात् कपड़ा और पुस्तक बननेकी तत्पर्यायोग्यता नहीं है, इसलिए मिट्टीका पिण्ड पुस्तक या कपड़ा नहीं बन पाता । फिर कारण द्रव्य भी एक नहीं, अनेक हैं; अतः सामग्रीके अनुसार परस्पर विरुद्ध अनेक कार्योंका युगपत् उत्पाद बन जाता है। महत्ता तात्पर्याययोग्यताकी है। जिस क्षणमें कारणद्रव्योंमें जितनी तात्पर्याययोग्यताएं होगी उनमेंसे किसी एकका विकास प्राप्तकारणसामग्रीके अनुमार हो जाता है । पुरुषका प्रयत्न उसे इष्ट आकार और प्रकारमें परिणत करानेके लिए विशेष साधक होता है । उपादानव्यवस्था इसी सत्पर्याययोग्यताके आधार पर होती है, मात्र द्रव्ययोग्यताके आधारसे नहीं; क्योंकि द्रव्ययोग्यता तो गेहूँ और कोदों दोनों वीजोंके परमाणुओंमें सभी अंकुरोंको पैदा करनेको समानरूपसे है। परन्तु तत्पर्याययोग्यता कोदोंके बोजमें कोदोंके अंकुरको ही उत्पन्न करनेकी है। तथा गेहूँके बीजमें गेहूँके अंकुरको ही उत्पन्न करने की है। इसीलिए भिन्न-भिन्न कार्योकी उत्पत्तिके लिए भिन्न-भिन्न उपादानोंका ग्रहण होता है । धर्मकीर्तिके आक्षेपका समाधान :
अतः बौद्धका यह दूपण कि "दहीको खाओ, यह कहने पर व्यक्ति ऊँटको क्यों नहीं खाने दोड़ता ? जब कि दही और ऊँटके पुद्गलोंमें पुद्गलद्रव्यरूपसे कोई भेद नहीं है।" उचित मालूम नहीं होता; क्योंकि जगत्का व्यवहार मात्र द्वव्ययोग्यतासे ही नहीं चलता किन्तु तत्पर्याययोग्यतासे चलता है । ऊँटके शरीरके पुद्गल और दहीके पुद्गल, द्रव्यरूपसे समान होनेपर भी 'एक' नहीं है और चूँकि वे स्थूल पर्यायरूपसे भी अपना परस्पर भेद रखते हैं तथा उनकी तत्पर्याययोग्यताएँ भी जुदी
१.सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषानिराकृतेः । चोदितो दधि खादेति किमुष्टुं नाभिधावति ।।"
-प्रमाणवा० ३।१८१।