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________________ १८८ जैनदर्शन बन्ध होने पर भी कोई नया द्रव्य उत्पन्न नहीं होता, पर नई अवस्था तो उत्पन्न होती ही है, और वह ऐसी अवस्था है, जो केवल साधारण संयोगजन्य नहीं है, किन्तु विशेष प्रकारके उभयपारिणामिक रासायनिक बन्धसे उत्पन्न होती है | परमाणुओंके संयोग सम्वन्ध अनेक प्रकार के होते हैं -कहीं मात्र प्रदेशसंयोग होता है, कहीं निविड, कही शिथिल और कहीं रासायनिक बन्धरूप | बन्ध-अवस्थामें हो स्कन्धकी उत्पत्ति होती है और अचाक्षुप स्कन्धको चाक्षुष बनने के लिए दूसरे स्कन्धके विशिष्ट संयोगकी उम रूपमें आवश्यकता है, जिस रूपसे वह उसकी सूक्ष्मताका विनाश कर स्थूलता ला सके; यानी जो स्कन्ध या परमाणु अपनी सूक्ष्म अवस्थाका त्याग कर स्थूल अवस्थाको धारण करता है, वह इन्द्रियगम्य हो सकता है । प्रत्येक परमाणुमें अखण्डता और अविभागिता होनेपर भी यह खूबी तो अवश्य है कि अपनी स्वाभाविक लचकके कारण वे एक दूसरेको स्थान दे देते हैं, ओर असंख्य परमाणु मिलकर अपने सूक्ष्म परिणमनरूप स्वभाव के कारण थोड़ीसी जगहमें समा जाते है । परमाणुओंको संख्याका अधिक होना ही स्थूलताका कारण नहीं है । बहुतसे कमसंख्यावाले परमाणु भी अपने स्थूल परिणमनके द्वारा स्थूल स्कन्ध बन जाते हैं, जव कि उनसे कई गुने परमाणु कार्मण शरीर आदिमें सूक्ष्म परिणमनके द्वारा इन्द्रिय-अग्राह्य स्कन्धके रूप में ही रह जाते है । तात्पर्य यह कि इन्द्रियग्राह्यता के लिए परमाणुओंकी संख्या अपेक्षित नहीं है, किन्तु उनका अमुक रूपमें स्थूल परिणमन ही विशेषरूपसे अपेक्षणीय होता है । ये अनेक प्रकारके बन्ध परमाणुओंके अपने स्निग्ध और रूक्ष स्वभावके कारण प्रतिक्षण होते रहते हैं, और परमाणुओंके अपने निजी परिणमनोंके योगमे उस स्कन्ध में रूपादिका तारतम्य घटित हो जाता है । एक स्थूल स्कन्धमें सैकड़ों प्रकारके बन्धवाले छोटे-छोटे अवयव-स्कन्ध शामिल रहते है; और उनमें प्रतिसमय किसी अवयवका टूटना नयेका
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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