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________________ जीवद्रव्य विवेचन १८९ जुड़ना तथा अनेकप्रकारके उपचय-अपचयरूप परिवर्तन होते है। यह निश्चित है कि स्कन्ध-अवस्था बिना रासायनिक बन्धके नहीं होती। यों साधारण संयोगोंके आधारसे भी एक स्थूल प्रतीति होती है और उसमें व्यवहारके लिए नई संज्ञा भी कर ली जाती है, पर इतने मात्रसे स्कन्ध अवस्था नहीं बनती। इस रासायनिक बन्धके लिए पुरुपका प्रयत्न भी क्वचित् काम करता है और विना प्रयत्नके भी अनेकों बन्ध प्राप्त सामग्रीके अनुसार होते है । पुरुषका प्रयत्न उनमें स्थायिता और सुन्दरता तथा विशेष आकार उत्पन्न करता है। सैकड़ों प्रकारके भौति आविष्कार इसी प्रकारकी प्रक्रियाके फल है। असंख्यात प्रदेशी लोकमें अनन्त पुद्गल परमाणुओंका समा जाना आकाशको अवगाहशक्ति और पुद्गलाणुओंके मूक्ष्मपरिणमनके कारण सम्भव हो जाता है । कितनी भी सुसम्बद्ध लकड़ीमें कील ठोकी जा सकती है । पानीमें हाथोका डूब जाना हमारी प्रतीतिका विषय होता हो है । परमाणुओंकी अनन्त शक्तियाँ अचिन्त्य है। आजक एटम बमने उसकी भीषण मंहारक शक्तिका कुछ अनुभव तो हमलोगोंको करा ही दिया है। गुण आदि द्रव्यरूप ही हैं । प्रत्येक द्रव्य सामान्यतया यद्यपि अखण्ड है, परन्तु वह अनेक सहभावी गुणोंका अभिन्न आधार होता है। अतः उसमे गुणकृत विभाग किया जा सकता है । एक पुद्गलपरमाणु युगपत् रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि अनेक गुणोंका आधार होता है । प्रत्येक गुणका भी प्रतिसमय परिणमन होता है । गुण और द्रव्यका कथञ्चित् तादत्म्य सम्बन्ध है । द्रव्यसे गुण पृथक् नहीं किया जा सकता, इसलिए वह अभिन्न है; और संज्ञा, संख्या, प्रयोजन आदिके भेदसे उसका विभिन्नरूपसे निरूपण किया जाता है; अतः वह भिन्न है । इस दृष्टिसे द्रव्यमें जितने गुण हैं, उतने उत्पाद और व्यय
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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