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________________ जीवद्रव्य विवेचन १८७ स्वीकार नहीं करते हैं तो उस भागमें तुरन्त विलक्षणता आ जाती है। इसीलिए स्थायो स्कन्ध तैयार करनेके समय इस बातका विशेष ध्यान रखा जाता है कि उन परमाणुओंका परस्पर एकरस मिलाव हुआ है या नहीं। जैसा मावा तैयार होगा वैसा हो तो कागज बनेगा। अत; न तो परमाणुओंको सर्वथा नित्य यानी अपरिवर्तनशील माना जा सकता है और न इतना स्वतंत्र परिणमन करनेवाले कि जिससे एक समान पर्यायका विकास ही न हो सके। अवयवीका स्वरूप यदि बौद्धोंकी तरह अत्यन्त समीप रखे हुए किन्तु परस्पर असम्बद्ध परमाणुओंका पुञ्ज ही स्थूल घटादि रूपसे प्रतिभासित होता है, यह माना जाय; तो बिना सम्बन्धके तथा स्थूल आकारको प्राप्तिके बिना ही वह अणपुञ्ज स्कन्ध रूपसे कैसे प्रतिभासित हो सकता है ? यह केवल भ्रम नहीं है, किन्तु प्रकृतिकी प्रयोगशालमें होनेवाला वास्तविक रासायनिक मिश्रण है, जिसमें सभी परमाणु बदलकर एक नई ही अवस्थाको धारण कर रहे है । यद्यपि 'तत्त्व संग्रह' (पृ० १६५ ) में यह स्वीकार किया है कि परमाणुओंमें विशिष्ट अवस्थाकी प्राप्ति हो जानेसे वे स्थलरूपमें इन्द्रियग्राह्य होते है, तो भी जब सम्बन्धका निषेध किया जाता है, तब इस 'विशिष्ट अवस्थाप्राप्ति' का क्या अर्थ हो सकता है ? अन्ततः उसका यही अर्थ सम्भव है कि 'जो परमाण परस्पर विलग और अतीन्द्रिय थे वे ही परस्परबद्ध और इन्द्रियग्राह्य बन जाते है। इस प्रकारकी परिणतिके माने बिना वालूके पुञ्जसे घटके परमाणुओंके सम्बन्धमें कोई विशेषता नहीं बताई जा सकती। परमाणुओमे जब स्निग्धता और रूक्षताके कारण अमुक प्रकारके रामायनिक बन्धके रूपमे सम्बन्ध होता है, तभी वे परमाणु स्कन्ध-अवस्थाको धारण कर सकते हैं; केवल परस्पर निरन्तर अवस्थित होनेके कारण ही नहीं । यह ठीक है कि उस प्रकारका
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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