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________________ १८६ जैनदर्शन नहीं हो सकेंगे। अमुक स्कन्ध-अवस्थामें आने पर उन्हें अपनी अदृश्यताको त्यागकर दृश्यता स्वीकार करनी ही चाहिए। किसी भी वस्तुको मजबूती या कमजोरी उसके घटक अवयवोंके दृढ़ और शिथिल बंधके ऊपर निर्भर करती है। वे ही परमाणु लोहेके स्कन्धकी अवस्थाको प्राप्त कर कठोर और चिरस्थायी बनते हैं, जब कि रूई अवस्थामें मृदु और अचिरस्थायी रहते हैं। यह सब तो उनके बन्धके प्रकारोंसे होता रहता है । यह तो समझमें आता है कि प्रत्येक पुद्गल परमाणुद्रव्यमें पुद्गलकी सभी शक्तियां हों, और विभिन्न स्कन्धोंमें उनका न्यूनाधिकरूपमें अनेक तरहका विकास हो। घटमें ही जल भरा जाता है कपड़ेमें नहीं, यद्यपि 'परमाणु दोनोंमें ही है और परमाणुओंसे दोनों ही बने है। वही परमाणु चन्दन-अवस्थामें शीतल होते है और वे ही जब अग्निका निमित्त पाकर आग बन जाते हैं, तब अन्य लकड़ियोंकी आगकी तरह दाहक होते हैं। पुद्गलद्रव्योंके परस्पर न्यूनाधिक सम्बन्धसे होनेवाले परिणमनोंकी न कोई गिनती निर्धारित है और न आकार और प्रकार ही। किसी भी पर्यायकी एकरूपता और चिरस्थायिता उसके प्रतिसमयभावी समानपरिणमनों पर निर्भर करती है। जब तक उसके घटक परमाणुओंमें समानपर्याय होती रहेगी, तब तक वह वस्तु एक-सी रहेगी और ज्योंही कुछ परमाणुओंमें परिस्थितिके अनुसार असमान परिणमन शुरू होगा; तैसे ही वस्तुके आकार-प्रकारमें विलक्षणता आती जायगी। आजके विज्ञानने जल्दी सड़नेवाले आलूको बरफमें या बद्धवायु ( Airtite ) में रखकर जल्दी सड़नेसे बचा लिया है। तात्पर्य यह कि सतत गतिशील पुद्गल-परमाणुओंके आकार और प्रकारको स्थिरता या अस्थिरताको कोई निश्चित जवाबदारी नहीं ली जा सकती। यह तो परिस्थिति और वातावरण पर निर्भर है कि वे कब, कहां और कैसे रहें। किसी लम्बे चौड़े स्कन्धके अमुक भागके कुछ परमाणु यदि विद्रोह करके स्कन्धत्वको कायम रखनेवाली परिणतिको
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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