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जीवद्रव्य विवेचन
१८५ कि जो द्रव्य पहले नहीं हैं, वे उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं, जबकि किसी नये द्रव्यका उत्पाद और उसका सदाके लिए विनाश वस्तुसिद्धान्तके प्रतिकूल है । यह तो संभव है और प्रतीतिमिद्ध है कि उन-उन परमाणुओंको विभिन्न अवस्थाओमे पिण्ड, स्थास, कोग, कुगल आदि व्यवहार होते हुए पूर्ण कलश-अवस्थामें घटव्यवहार हो। इममे किगी नये द्रव्यके उत्पादकी बात नहीं है, और न वजन बढनेकी बात है।
यह ठीक है कि प्रत्येक परमाण जलधारण नहीं कर सकता और घटमे जल भरा जा सकता है, पर इतने मात्रामे उसे पृथक् द्रव्य नहीं माना जा सकता। ये तो परमाणुओंके विशिष्ट संगठनके कार्य है; जो उस प्रकारके संगठन होनेपर स्वतः होते है। एक परमाणु आँखसे नहीं दिखाई देता, पर अमुक परमाणुओंका समुदाय जब विशिष्ट अवस्थाको प्राप्त हो जाता है, तो वह दिखाई देने लगता है। स्निग्धता और रूक्षताके कारण परमाणुओंके अनेक प्रकारके सम्बन्ध होते रहते हैं, जो अपनी दृढ़ता और शिथिलताके अनुसार अधिक टिकाऊ या कम टिकाऊ होते है । स्कन्ध-अवस्थामें चूंकि परमाणुओंका स्वतंत्र द्रव्यत्व नष्ट नहीं होता, अतः उन-उन हिस्मोंके परमाणुओंमे पृथक् रूप और रसादिका परिणमन भी होता जाता है। यही कारण है कि एक कपड़ा किसी हिस्सेमे अधिक मैला, किसीमें कम मैला और किसी में उजला बना रहता है।
यह अवश्य स्वीकार करना होगा कि जो परमाणु किसी स्थूल घट आदि का रूपसे परिणत हुए है, वे अपनी परमाणु-अवस्थाको छोड़कर स्कन्ध-अवस्थाको प्राप्त हुए है। यह स्कन्ध-अवस्था किसी नये द्रव्यको नहीं है, किन्तु उन सभी परमाणुओंको अवस्थाओंका योग है । यदि परमाणुओंको सर्वथा पृथक् और सदा परमाणुरूप ही स्वीकार किया जाता है, तो जिस प्रकार एक परमाणु आँखोंसे नहीं दिखाई देता उसी तरह सैकड़ों परमाणुओंके अति-समीप रखे रहने पर भी, वे इन्द्रियोंके गोचर