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जैनदर्शन सामुदायिक अभिव्यक्ति में न्यूनता, शिथिलता और जीर्णता आदि रूपसे विविधता आ चलती है । तात्पर्य यह कि मूलतः गुण और पर्यायोंका आधार जो होता है वही द्रव्य कहलाता और उसीकी सत्ता द्रव्यरूपमे गिनी जाती है। अनेक द्रव्योंके समान या असमान परिणमनोंकी औसतमे जो विभिन्न व्यवहार होते है, वे स्वतन्त्र द्रव्यको संज्ञा नहीं पा सकते।
जिन परमाणुओंसे घट बनता है उन परमाणुओंमे घट नामके निरंश अवयवीको स्वीकार करनेमे अनेकों दूपण आते है । यथा-निरंश अवयवी अपने अवयवोमे एकदेशसे रहता है, या सर्वात्मना ? यदि एकदेशसे रहता है; तो जितने अवयव है, उतने ही देश अवयवीके मानना होंगे। यदि सर्वात्मना प्रत्येक अवयवमे रहता है; तो जितने अवयव है उतने ही अवयवी हो जायेंगे । यदि अवयवी निरंश है; तो वस्त्रादिके एक हिस्सेको ढंकनेपर सम्पूर्ण वस्त्र ढंका जाना चाहिये और एक अवयवमें क्रिया होनेपर पूरे अवयवीमे क्रिया होनी चाहिए, क्योंकि अवयवी निरंश है । यदि अवयवी अतिरिक्त है; तो चार छटाँक सूतसे तैयार हुए वस्त्रका वजन बढ़ जाना चाहिये, पर ऐमा देखा नहीं जाता। वस्त्रके एक अंशके फट जाने पर फिर उतने परमाणुओंसे नये अवयवीको उत्पत्ति माननेमें कल्पनागौरव और प्रतीतिबाधा है; क्योंकि जब प्रतिसमय कपड़ेका उपचय और अपचय होता है तब प्रतिक्षण नये अवयवीकी उत्पत्ति मानना पड़ेगी।
वैशेपिकका आठ, नव, दरा आदि क्षणोंमें परमाणुकी क्रिया, संयोग आदि क्रमसे अवयवीकी उत्पत्ति और विनाशका वर्णन एक प्रक्रियामात्र है । वस्तुतः जैसे-जैसे कारणकलाप मिलते जाते है, वैसे-वैसे उन परमाणुओंके संयोग और वियोगसे उस-उस प्रकारके आकार और प्रकार बनते
और बिगड़ते रहते है। परमाणुओंसे लेकर घट तक अनेक स्वतंत्र अवयवियोंकी उत्पत्ति और विनाशकी प्रक्रियासे तो यह निष्कर्ष निकलता है