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षद्रव्य विवेचन
१४३ शरीरके आकारके अनुसार छोटे-बड़े आकारको धारण करता है । इसका स्वरूप निम्नलिखित गाथामें बहुत स्पष्ट बताया गया है
"जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो। भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ।"
-द्रव्यसंग्रह गाथा २। अर्थात्-जीव उपयोगरूप है, अमूर्तिक है, कर्ता है, स्वदेहपरिमाण है, भोक्ता है, संसारी है, सिद्ध है और स्वभावसे ऊर्ध्वगमन करनेवाला है। __ यद्यपि जीवमें रूप, रस, गंध और स्पर्श ये चार पुद्गलके धर्म नहीं पाये जाते, इसलिए वह स्वभावसे अमूर्तिक है। फिर भी प्रदेशोंमें संकोच और विस्तार होनेसे वह अपने छोटे-बड़े शरीरके परिमाण हो जाता है । आत्मासे आकारके विषयमें भारतीय दर्शनोंमें मुख्यतया तीन मत पाये जाते है । 'उपनिषदमें आत्माके सर्वगत और व्यापक होनेका जहाँ उल्लेख मिलता है, वहाँ उसके अंगुष्ठमात्र तथा अणुरूप होनेका भी कथन है।
व्यापक आत्मवाद:
वैदिक दर्शनोंमें प्रायः आत्माको अमूर्त और व्यापी स्वीकार किया है । व्यापक होने पर भी शरीर और मनके सम्बन्धसे शरीरावच्छिन्न ( शरीरके भीतरके ) आत्मप्रदेशोंमें ज्ञानादि विशेषगुणोंकी उत्पत्ति होती है । अमूर्त होनेके कारण आत्मा निष्क्रिय भी है । उसमें गति नहीं होती। शरीर और मन चलता है, और अपनेसे सम्बद्ध आत्मप्रदेशोंमें ज्ञानादिकी अनुभूतिका साधन बनता जाता है ।
१. "सर्वव्यापिनमात्मानम् ।"-श्वे० १११६ । २. “अङ्गष्ठमात्रः पुरुषः” -श्वे० ३११३ । कठो०४।१२ ।
"अणीयान् ब्रीहेर्वा यवाद्वा..." -छान्दो० ३।१४।३ ।